लघु कथाएं

Thursday, August 10, 2017

मुण्डन

5:03 AM
किसी देश की संसद में एक दिन बड़ी हलचल मची। हलचल का कारण कोई राजनीतिक समस्या नहीं थी, बल्कि यह था कि एक मंत्री का अचानक मुण्डन हो गया था। कल तक उनके सिर पर लंबे घुंघराले बाल थे, मगर रात में उनका अचानक मुण्डन हो गया था।

सदस्यों में कानाफूसी हो रही थी कि इन्हें क्या हो गया है। अटकलें लगने लगीं। किसी ने कहा, ”शायद सिर में जूं हो गई हों।” दूसरे ने कहा, ”शायद दिमाग में विचार भरने के लिए बालों का परदा अलग कर दिया हो।” किसी ने कहा, ”शायद इनके परिवार में किसी की मौत हो गई।” पर वे पहले की तरह प्रसन्न लग रहे थे।
आखिर एक सदस्य ने पूछा, ”अध्यक्ष महोदय! क्या मैं जान सकता हूं कि माननीय मंत्री महोदय के परिवार में क्या किसी की मृत्यु हो गई है?”
मंत्री ने जवाब दिया, ”नहीं।”
सदस्यों ने अटकल लगाई कि कहीं उन लोगों ने ही तो मंत्री का मुण्डन नहीं कर दिया, जिनके खिलाफ वे बिल पेश करने का इरादा कर रहे थे।
एक सदस्य ने पूछा, ”अध्यक्ष महोदय! क्या माननीय मंत्री को मालूम है कि उनका मुण्डन हो गया है? यदि हां तो क्या वे बताएंगे कि उनका मुण्डन किसने कर दिया है?”
मंत्री ने संजीदगी से जवाब दिया, ”मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं!”
कई सदस्य चिल्लाये, ”हुआ है! सबको दिख रहा है।”
मंत्री ने कहा, ”सबको दिखने से कुछ नहीं होता। सरकार को दिखना चाहिए। सरकार इस बात की जांच करेगी कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं।”    
एक सदस्य ने कहा, ”इसकी जांच अभी हो सकती है। मंत्री महोदय अपना हाथ सिर पर फेरकर देख लें।”
मंत्री ने जवाब दिया, ”मैं अपना हाथ सिर पर फेरकर हरगिज नहीं देखूंगा। सरकार इस मामले में जल्दबाजी नहीं करती। मगर मैं वायदा करता हूं कि मेरी सरकार इस बात की विस्तृत जांच करवाकर सारे तथ्य सदन के सामने पेश करेगी।”
सदस्य चिल्लाये, ”इसकी जांच की क्या जरूरत है? सिर आपका है और हाथ भी आपके हैं। अपने ही हाथ को अपने सिर पर फेरने में मंत्री महोदय को क्या आपत्ति है?”
मंत्री बोले, ”मैं सदस्यों से सहमत हूं कि सिर मेरा है और हाथ भी मेरे हैं। मगर हमारे हाथ परम्पराओं और नीतियों से बंधे हैं। मैं अपने सिर पर हाथ फेरने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं। सराकर की एक नियमित कार्य-प्रणाली होती है। विरोधी सदस्यों के दबाव में आकर में उस प्रणाली को भंग नहीं कर सकता। मैं सदन में इस संबंध में एक वक्तव्य दूंगा।”
शाम को मंत्री महोदय ने सदन में वक्तव्य दिया-
”अध्यक्ष महोदय! सदन में यह प्रश्न उठाया गया कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं? यदि हुआ है, तो किसने किया है? ये प्रश्न बहुत जटिल हैं। और इस पर सरकार जल्दबाजी में निर्णय नहीं ले सकती। मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुण्डन हुआ है या नहीं। जब तक पूरी जांच न हो जाए, सरकार इस संबंध में कुछ नहीं कह सकती। हमारी सरकार तीन व्यक्तियों की एक जांच समिति नियुक्त करती है, जो इस बात की जांच करेगी। जांच समिति की रिपोर्ट मैं सदन में पेश करूंगा।”
सदस्यों ने कहा, ”यह मामला कुतुबमीनार का नहीं जो सदियों जांच के लिए खड़ी रहेगी। यह आपके बालों का मामला है, जो बढ़ते और कटते रहते हैं। इसका निर्णय तुरंत होना चाहिए।”
मंत्री ने जवाब दिया, ”कुतुबमीनार से हमारे बालों की तुलना करके उनका अपमान का अधिकार सदस्यों को नहीं है। जहां तक मूल समस्या का संबंध है, सरकार जांच के पहले कुछ नहीं कह सकती।”
जांच समिति सालों जांच करती रही। इधर मंत्री के सिर पर बाल बढ़ते रहे।
एक दिन मंत्री ने जांच समिति की रिपोर्ट सदन के सामने रख दी।
जांच समिति का निर्णय था कि मंत्री का मुण्डन नहीं हुआ।
सत्ताधारी दल के सदस्यों ने इसका स्वागत हर्षध्वनि से किया।
सदन के दूसरे भाग से ‘शर्म-शर्म’ की आवाजें उठीं। एतराज उठे- ”यह एकदम झूठ है। मंत्री का मुण्डन हुआ था।”
मंत्री मुसकराते हुए उठे और बोले, ”यह आपका खयाल हो सकता है। मगर प्रमाण तो चाहिए। आज भी अगर आप प्रमाण दे दें तो मैं आपकी बात मान लेता हूं।”
ऐसा कहकर उन्होंने अपने घुंघराले बालों पर हाथ फेरा और सदन दूसरे मसले को सुलझाने में व्यस्त हो गया।

Monday, May 11, 2015

मलबे का मालिक

12:38 AM
मोहन राकेश
साढ़े सात साल के बाद वे लोग लाहौर से अमृतसर आये थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराये हो गये थे। हर सडक़ पर मुसलमानों की कोई-न-कोई टोली घूमती नज़र आ जाती थी। उनकी आँखें इस आग्रह के साथ वहाँ की हर चीज़ को देख रही थीं जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक अच्छा-ख़ासा आकर्षण-केन्द्र हो।

तंग बाज़ारों में से गुज़रते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीज़ों की याद दिला रहे थे...देख-फतहदीना, मिसरी बाज़ार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गयी हैं! उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारिन की भट्‌ठी थी, जहाँ अब वह पानवाला बैठा है।...यह नमक मंडी देख लो, ख़ान साहब! यहाँ की एक-एक लालाइन वह नमकीन होती है कि बस...!

बहुत दिनों के बाद बाज़ारों में तुर्रेदार पगडिय़ाँ और लाल तुरकी टोपियाँ नज़र आ रही थीं। लाहौर से आये मुसलमानों में काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्हें विभाजन के समय मज़बूर होकर अमृतसर से जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आये अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर कहीं उनकी आँखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफ़सोस घिर आता-वल्लाह! कटरा जयमलसिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? क्या इस तरफ़ के सब-के-सब मकान जल गये थे?...यहाँ हक़ीम आसिफ़अली की दुकान थी न? अब यहाँ एक मोची ने कब्ज़ा कर रखा है?

और कहीं-कहीं ऐसे भी वाक्य सुनाई दे जाते-वली, यह मस्ज़िद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरुद्वारा नहीं बना दिया!
जिस रास्ते से भी पाकिस्तानियों की टोली गुज़रती, शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक उस तरफ़ देखते रहते। कुछ लोग अब भी मुसलमानों को आते देखकर आशंकित से रास्ते से हट जाते, जबकि दूसरे आगे बढक़र उनसे बगलगीर होने लगते। ज़्यादातर वे आगन्तुकों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछते-कि आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमीगेट का बाज़ार पूरा नया बना है? कृष्णनगर में तो कोई ख़ास तब्दीली नहीं आयी? वहाँ का रिश्वतपुरा क्या वाकई रिश्वत के पैसे से बना है?...कहते हैं, पाकिस्तान में अब बुर्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है?... इन सवालों में इतनी आत्मीयता झलकती थी कि लगता था, लाहौर एक शहर नहीं, हज़ारों लोगों का सगा-सम्बन्धी है, जिसके हाल जानने के लिए वे उत्सुक हैं। लाहौर से आये लोग उस दिन शहर-भर के मेहमान थे जिनसे मिलकर और बातें करके लोगों को बहुत ख़ुशी हो रही थी।

बाज़ार बाँसाँ अमृतसर का एक उजड़ा-सा बाज़ार है, जहाँ विभाजन से पहले ज़्यादातर निचले तबके के मुसलमान रहते थे। वहाँ ज़्यादातर बाँसों और शहतीरों की ही दुकानें थीं जो सब की सब एक ही आग में जल गयी थीं। बाज़ार बाँसाँ की वह आग अमृतसर की सबसे भयानक आग थी जिससे कुछ देर के लिए तो सारे शहर के जल जाने का अन्देशा पैदा हो गया था। बाज़ार बाँसाँ के आसपास के कई मुहल्लों को तो उस आग ने अपनी लपेट में ले ही लिया था। ख़ैर, किसी तरह वह आग काबू में आ गयी थी, पर उसमें मुसलमानों के एक-एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार-चार, छ:-छ: घर जलकर राख हो गये थे। अब साढ़े सात साल में उनमें से कई इमारतें फिर से खड़ी हो गयी थीं, मगर जगह-जगह मलबे के ढेर अब भी मौजूद थे। नई इमारतों के बीच-बीच वे मलबे के ढेर एक अजीब वातावरण प्रस्तुत करते थे।

बाज़ार बाँसाँ में उस दिन भी चहल-पहल नहीं थी क्योंकि उस बाज़ार के रहने वाले ज़्यादातर लोग तो अपने मकानों के साथ ही शहीद हो गये थे, और जो बचकर चले गये थे, उनमें से शायद किसी में भी लौटकर आने की हिम्मत नहीं रही थी। सिर्फ़ एक दुबला-पतला बुड्ïढा मुसलमान ही उस दिन उस वीरान बाज़ार में आया और वहाँ की नयी और जली हुई इमारतों को देखकर जैसे भूलभुलैयाँ में पड़ गया। बायीं तरफ़ जानेवाली गली के पास पहुँचकर उसके पैर अन्दर मुडऩे को हुए, मगर फिर वह हिचकिचाकर वहाँ बाहर ही खड़ा रह गया। जैसे उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही गली है जिसमें वह जाना चाहता है। गली में एक तरफ़ कुछ बच्चे कीड़ी-कीड़ा खेल रहे थे और कुछ फ़ासले पर दो स्त्रियाँ ऊँची आवाज़ में चीख़ती हुई एक-दूसरी को गालियाँ दे रही थीं।

"सब कुछ बदल गया, मगर बोलियाँ नहीं बदलीं!" बुड्ढे मुसलमान ने धीमे स्वर में अपने से कहा और छड़ी का सहारा लिये खड़ा रहा। उसके घुटने पाजामे से बाहर को निकल रहे थे। घुटनों से थोड़ा ऊपर शेरवानी में तीन-चार पैबन्द लगे थे। गली से एक बच्चा रोता हुआ बाहर आ रहा था। उसने उसे पुचकारा, "इधर आ, बेटे! आ, तुझे चिज्जी देंगे, आ!" और वह अपनी जेब में हाथ डालकर उसे देने के लिए कोई चीज़ ढूँढऩे लगा। बच्चा एक क्षण के लिए चुप कर गया, लेकिन फिर उसी तरह होंठ बिसूरकर रोने लगा। एक सोलह-सत्रह साल की लडक़ी गली के अन्दर से दौड़ती हुई आयी और बच्चे को बाँह से पकडक़र गली में ले चली। बच्चा रोने के साथ-साथ अब अपनी बाँह छुड़ाने के लिए मचलने लगा। लडक़ी ने उसे अपनी बाँहों में उठाकर साथ सटा लिया और उसका मुँह चूमती हुई बोली, चुप कर, ख़सम-खाने! रोएगा, तो वह मुसलमान तुझे पकडक़र ले जाएगा! कह रही हूँ, चुप कर!"

बुड्ढे मुसलमान ने बच्चे को देने के लिए जो पैसा निकाला था, वह उसने वापस जेब में रख लिया। सिर से टोपी उतारकर वहाँ थोड़ा खुजलाया और टोपी अपनी बग़ल में दबा ली। उसका गला ख़ुश्क हो रहा था और घुटने थोड़ा काँप रहे थे। उसने गली के बाहर की एक बन्द दुकान के तख्ते का सहारा ले लिया और टोपी फिर से सिर पर लगा ली। गली के सामने जहाँ पहले ऊँचे-ऊँचे शहतीर रखे रहते थे, वहाँ अब एक तिमंज़िला मकान खड़ा था। सामने बिजली के तार पर दो मोटी-मोटी चीलें बिल्कुल जड़-सी बैठी थीं। बिजली के खम्भे के पास थोड़ी धूप थी। वह कई पल धूप में उड़ते ज़र्रों को देखता रहा। फिर उसके मुँह से निकला, "या मालिक!"

एक नवयवुक चाबियों का गुच्छा घुमाता गली की तरफ़ आया। बुड्ढे को वहाँ खड़े देखकर उसने पूछा, "कहिए मियाँजी, यहाँ किसलिए खड़े हैं?"
बुड्ढे मुसलमान को छाती और बाँहों में हल्की-सी कँपकँपी महसूस हुई। उसने होंठों पर ज़बान फेरी और नवयुवक को ध्यान से देखते हुए कहा, "बेटे, तेरा नाम मनोरी है न?"

नवयुवक ने चाबियों के गुच्छे को हिलाना बन्द करके अपनी मुट्‌ठी में ले लिया और कुछ आश्चर्य के साथ पूछा, "आपको मेरा नाम कैसे मालूम है?"

"साढ़े सात साल पहले तू इतना-सा था," कहकर बुड्ढे ने मुस्कराने की कोशिश की।

"आप आज पाकिस्तान से आये हैं?"

"हाँ! पहले हम इसी गली में रहते थे," बुड्ढे ने कहा, "मेरा लडक़ा चिराग़दीन तुम लोगों का दर्ज़ी था। तक़सीम से छ: महीने पहले हम लोगों ने यहाँ अपना नया मकान बनवाया था।"

"ओ, गनी मियाँ!" मनोरी ने पहचानकर कहा।

"हाँ, बेटे मैं तुम लोगों का गनी मियाँ हूँ! चिराग़ और उसके बीवी-बच्चे तो अब मुझे मिल नहीं सकते, मगर मैंने सोचा कि एक बार मकान की ही सूरत देख लूँ!" बुड्ढे ने टोपी उतारकर सिर पर हाथ फेरा, और अपने आँसुओं को बहने से रोक लिया।

"तुम तो शायद काफ़ी पहले यहाँ से चले गये थे," मनोरी के स्वर में संवेदना भर आयी।

"हाँ, बेटे यह मेरी बदबख्ती थी कि मैं अकेला पहले निकलकर चला गया था। यहाँ रहता, तो उसके साथ मैं भी..." कहते हुए उसे एहसास हो आया कि यह बात उसे नहीं कहनी चाहिए। उसने बात को मुँह में रोक लिया पर आँखों में आये आँसुओं को नीचे बह जाने दिया।

"छोड़ो गनी मियाँ, अब उन बातों को सोचने में क्या रखा है?" मनोरी ने गनी की बाँह अपने हाथ में ले ली। "चलो, तुम्हें तुम्हारा घर दिखा दूँ।"

गली में ख़बर इस तरह फैली थी कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है जो रामदासी के लडक़े को उठाने जा रहा था...उसकी बहन वक़्त पर उसे पकड़ लायी, नहीं तो वह मुसलमान उसे ले गया होता। यह ख़बर मिलते ही जो स्त्रियाँ गली में पीढ़े बिछाकर बैठी थीं, वे पीढ़े उठाकर घरों के अन्दर चली गयीं। गली में खेलते बच्चों को भी उन्होंने पुकार-पुकारकर घरों के अन्दर बुला लिया। मनोरी गनी को लेकर गली में दाख़िल हुआ, तो गली में सिर्फ़ एक फेरीवाला रह गया था, या रक्खा पहलवान जो कुएँ पर उगे पीपल के नीचे बिखरकर सोया था। हाँ, घरों की खिड़कियों में से और किवाड़ों के पीछे से कई चेहरे गली में झाँक रहे थे। मनोरी के साथ गनी को आते देखकर उनमें हल्की चेहमेगोइयाँ शुरू हो गयीं। दाढ़ी के सब बाल सफ़ेद हो जाने के बावजूद चिराग़दीन के बाप अब्दुल गनी को पहचानने में लोगों को दिक्कत नहीं हुई।

"वह था तुम्हारा मकान," मनोरी ने दूर से एक मलबे की तरफ़ इशारा किया। गनी पल-भर ठिठककर फटी-फटी आँखों से उस तरफ़ देखता रहा। चिराग़ और उसके बीवी-बच्चों की मौत को वह काफ़ी पहले स्वीकार कर चुका था। मगर अपने नये मकान को इस शक्ल में देखकर उसे जो झुरझुरी हुई, उसके लिए वह तैयार नहीं था। उसकी ज़बान पहले से और ख़ुश्क हो गयी और घुटने भी ज़्यादा काँपने लगे।

"यह मलबा?" उसने अविश्वास के साथ पूछ लिया।

मनोरी ने उसके चेहरे के बदले हुए रंग को देखा। उसकी बाँह को थोड़ा और सहारा देकर जड़-से स्वर में उत्तर दिया, "तुम्हारा मकान उन्हीं दिनों जल गया था।"

गनी छड़ी के सहारे चलता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुँच गया। मलबे में अब मिट्‌टी ही मिट्‌टी थी जिसमें से जहाँ-तहाँ टूटी और जली हुई ईंटें बाहर झाँक रही थीं। लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से कब का निकाला जा चुका था। केवल एक जले हुए दरवाज़े का चौखट न जाने कैसे बचा रह गया था। पीछे की तरफ़ दो जली हुई अलमारियाँ थीं जिनकी कालिख पर अब सफ़ेदी की हल्की-हल्की तह उभर आयी थी। उस मलबे को पास से देखकर गनी ने कहा, "यह बाकी रह गया है, यह?" और उसके घुटने जैसे जवाब दे गये और वह वहीं जले हुए चौखट को पकडक़र बैठ गया। क्षण-भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा सटा और उसके मुँह से बिलखने की-सी आवाज़ निकली, "हाय ओए चिराग़दीना!"

जले हुए किवाड़ का वह चौखट मलबे में से सिर निकाले साढ़े सात साल खड़ा तो रहा था, पर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गयी थी। गनी के सिर के छूने से उसके कई रेशे झडक़र आसपास बिखर गये। कुछ रेशे गनी की टोपी और बालों पर आ रहे। उन रेशों के साथ एक केंचुआ भी नीचे गिरा जो गनी के पैर से छ:-आठ इंच दूर नाली के साथ-साथ बनी ईंटों की पटरी पर इधर-उधर सरसराने लगा। वह छिपने के लिए सूराख़ ढूँढ़ता हुआ ज़रा-सा सिर उठाता, पर कोई जगह न पाकर दो-एक बार सिर पटकने के बाद दूसरी तरफ़ मुड़ जाता।

खिड़कियों से झाँकनेवाले चेहरों की संख्या अब पहले से कहीं ज़्यादा हो गयी थी। उनमें चेहमेगोइयाँ चल रही थीं कि आज कुछ-न-कुछ ज़रूर होगा...चिराग़दीन का बाप गनी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की वह सारी घटना आज अपने-आप खुल जाएगी। लोगों को लग रहा था जैसे वह मलबा ही गनी को सारी कहानी सुना देगा-कि शाम के वक़्त चिराग़ ऊपर के कमरे में खाना खा रहा था जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया-कहा कि वह एक मिनट आकर उसकी बात सुन ले। पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था। वहाँ के हिन्दुओं पर ही उसका काफ़ी दबदबा था-चिराग़ तो ख़ैर मुसलमान था। चिराग़ हाथ का कौर बीच में ही छोडक़र नीचे उतर आया। उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियाँ, किश्वर और सुलताना, खिड़कियों से नीचे झाँकने लगीं। चिराग़ ने ड्योढ़ी से बाहर क़दम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज़ के कॉलर से पकडक़र अपनी तरफ़ खींच लिया और गली में गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। चिराग़ उसका छुरेवाला हाथ पकडक़र चिल्लाया, "रक्खे पहलवान, मुझे मत मार! हाय, कोई मुझे बचाओ!" ऊपर से जुबैदा, किश्वर और सुलताना भी हताश स्वर में चिल्लाईं और चीख़ती हुई नीचे ड्योढ़ी की तरफ़ दौड़ीं। रक्खे के एक शागिर्द ने चिराग़ की जद्दोजेहद करती बाँहें पकड़ लीं और रक्खा उसकी जाँघों को अपने घुटनों से दबाए हुए बोला, "चीख़ता क्यों है, भैण के...तुझे मैं पाकिस्तान दे रहा हूँ, ले पाकिस्तान!" और जब तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना नीचे पहुँचीं, चिराग़ को पाकिस्तान मिल चुका था।

आसपास के घरों की खिड़कियाँ तब बन्द हो गयी थीं। जो लोग इस दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाज़े बन्द करके अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था। बन्द किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीख़ने की आवाज़ें सुनाई देती रहीं। रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान दे दिया, मगर दूसरे तबील रास्ते से। उनकी लाशें चिराग़ के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पायी गयीं।
दो दिन चिराग़ के घर की छानबीन होती रही थी। जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका, तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी थी। रक्खे पहलवान ने तब कसम खायी थी कि वह आग लगाने वाले को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देगा क्योंकि उस मकान पर नज़र रखकर ही उसने चिराग़ को मारने का निश्चय किया था। उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन-सामग्री भी ला रखी थी। मगर आग लगानेवाले का तब से आज तक पता नहीं चल सका था। अब साढ़े सात साल से रक्खा उस मलबे को अपनी जायदाद समझता आ रहा था, जहाँ न वह किसी को गाय-भैंस बाँधने देता था और न ही खुमचा लगाने देता था। उस मलबे से बिना उसकी इज़ाज़त के कोई एक ईंट भी नहीं निकाल सकता था।

लोग आशा कर रहे थे कि यह सारी कहानी ज़रूर किसी न किसी तरह गनी तक पहुँच जाएगी...जैसे मलबे को देखकर ही उसे सारी घटना का पता चल जाएगा। और गनी मलबे की मिट्‌टी को नाख़ूनों से खोद-खोदकर अपने ऊपर डाल रहा था और दरवाज़े के चौख़ट को बाँह में लिये हुए रो रहा था, "बोल, चिराग़दीना, बोल! तू कहाँ चला गया, ओए? ओ किश्वर! ओ सुलताना! हाय, मेरे बच्चे ओएऽऽ! गनी को पीछे क्यों छोड़ दिया, ओएऽऽऽ!"
और भुरभुरे किवाड़ से लकड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे।

पीपल के नीचे सोए रक्खे पहलवान को जाने किसी ने जगा दिया, या वह ख़ुद ही जाग गया। यह जानकर कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी आया है और अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया जिससे उसे खाँसी आ गयी और उसने कुएँ के फ़र्श पर थूक दिया। मलबे की तरफ़ देखकर उसकी छाती से धौंकनी की-सी आवाज़ निकली और उसका निचला होंठ थोड़ा बाहर को फैल आया।

"गनी अपने मलबे पर बैठा है," उसके शागिर्द लच्छे पहलावन ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा।

"मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है!" पहलवान ने झाग से घरघराई आवाज़ में कहा।

"मगर वह वहाँ बैठा है," लच्छे  ने आँखों में एक रहस्यमय संकेत लाकर कहा।

"बैठा है, बैठा रहे। तू चिलम ला!" रक्खे की टाँगें थोड़ी फैल गयीं और उसने अपनी नंगी जाँघों पर हाथ फेर लिया।

"मनोरी ने अगर उसे कुछ बता-वता दिया तो...?" लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण ढंग से कहा।

"मनोरी की क्या शामत आयी है?"

लच्छा चला गया।

कुएँ पर पीपल की कई पुरानी पत्तियाँ बिखरी थीं। रक्खा उन पत्तियों को उठा-उठाकर अपने हाथों में मसलता रहा। जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर चिलम उसके हाथ में दी, तो उसने कश खींचते हुए पूछा, "और तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?"

"नहीं।"

"ले," और उसने खाँसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी। मनोरी गनी की बाँह पकड़े मलबे की तरफ़ से आ रहा था। लच्छा उकड़ूँ होकर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। उसकी आँखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की तरफ़ लगी रहतीं।

मनोरी गनी की बाँह थामे उससे एक क़दम आगे चल रहा था-जैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुएँ के पास से बिना रक्खे को देखे ही निकल जाए। मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया। कुएँ के पास पहुँचते न पहुँचते उसकी दोनों बाँहें फैल गयीं और उसने कहा, "रक्खे पहलवान!"

रक्खे ने गरदन उठाकर और आँखें ज़रा छोटी करके उसे देखा। उसके गले में अस्पष्ट-सी घरघराहट हुई, पर वह बोला नहीं।

"रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?" गनी ने बाँहें नीची करके कहा, "मैं गनी हूँ, अब्दुल गनी, चिराग़दीन का बाप!"

पहलवान ने ऊपर से नीचे तक उसका जायज़ा लिया। अब्दुल गनी की आँखों में उसे देखकर एक चमक-सी आ गयी थी। सफ़ेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुर्रियाँ भी कुछ फैल गयी थीं। रक्खे का निचला होंठ फडक़ा। फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला, "सुना, गनिया!"

गनी की बाँहें फिर फैलने को हुईं, पर पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गयीं। वह पीपल का सहारा लेकर कुएँ की सिल पर बैठ गया।
ऊपर खिड़कियों में चेहमेगोइयाँ तेज़ हो गयीं कि अब दोनों आमने-सामने आ गये हैं, तो बात ज़रूर खुलेगी...फिर हो सकता है दोनों में गाली-गलौज़ भी हो।...अब रक्खा गनी को हाथ नहीं लगा सकता। अब वे दिन नहीं रहे।...बड़ा मलबे का मालिक बनता था!...असल में मलबा न इसका है, न गनी का। मलबा तो सरकार की मलकियत है! मरदूद किसी को वहाँ गाय का खूँटा तक नहीं लगाने देता!...मनोरी भी डरपोक है। इसने गनी को बता क्यों नहीं दिया कि रक्खे ने ही चिराग़ और उसके बीवी-बच्चों को मारा है!...रक्खा आदमी नहीं साँड है! दिन-भर साँड की तरह गली में घूमता है!...गनी बेचारा कितना दुबला हो गया है! दाढ़ी के सारे बाल सफ़ेद हो गये हैं!...

गनी ने कुएँ की सिल पर बैठकर कहा, "देख रक्खे पहलान, क्या से क्या हो गया है! भरा-पूरा घर छोडक़र गया था और आज यहाँ यह मिट्‌टी देखने आया हूँ! बसे घर की आज यही निशानी रह गयी है! तू सच पूछे, तो मेरा यह मिट्‌टी भी छोडक़र जाने को मन नहीं करता!" और उसकी आँखें फिर छलछला आयीं।

पहलवान ने अपनी टाँगें समेट लीं और अंगोछा कुएँ की मुँडेर से उठाकर कन्धे पर डाल लिया। लच्छे ने चिलम उसकी तरफ़ बढ़ा दी। वह कश खींचने लगा।

"तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह?" गनी किसी तरह अपने आँसू रोककर बोला, "तुम लोग उसके पास थे। सब में भाई-भाई की-सी मुहब्बत थी। अगर वह चाहता, तो तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसमें इतनी भी समझदारी नहीं थी?"

"ऐसे ही है," रक्खे को स्वयं लगा कि उसकी आवाज़ में एक अस्वाभाविक-सी गूँज है। उसके होंठ गाढ़े लार से चिपक गये थे। मूँछों के नीचे से पसीना उसके होंठ पर आ रहा था। उसे माथे पर किसी चीज़ का दबाव महसूस हो रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी।
"पाकिस्तान में तुम लोगों के क्या हाल हैं?" उसने पूछा। उसके गले की नसों में एक तनाव आ गया था। उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुँह में खींचकर गली में थूक दिया।

"क्या हाल बताऊँ, रक्खे," गनी दोनों हाथों से छड़ी पर बोझ डालकर झुकता हुआ बोला, "मेरा हाल तो मेरा ख़ुदा ही जानता है। चिराग़ वहाँ साथ होता, तो और बात थी।...मैंने उसे कितना समझाया था कि मेरे साथ चला चल। पर वह ज़िद पर अड़ा रहा कि नया मकान छोडक़र नहीं जाऊँगा-यह अपनी गली है, यहाँ कोई ख़तरा नहीं है। भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में ख़तरा न हो, पर बाहर से तो ख़तरा आ सकता है! मकान की रखवाली के लिए चारों ने अपनी जान दे दी!...रक्खे, उसे तेरा बहुत भरोसा था। कहता था कि रक्खे के रहते मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मगर जब जान पर बन आयी, तो रक्खे के रोके भी न रुकी।"

रक्खे ने सीधा होने की चेष्टा की क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी बहुत दर्द कर रही थी। अपनी कमर और जाँघों के जोड़ पर उसे सख़्त दबाव महसूस हो रहा था। पेट की अंतडिय़ों के पास से जैसे कोई चीज़ उसकी साँस को रोक रही थी। उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था और उसके तलुओं में चुनचुनाहट हो रही थी। बीच-बीच में नीली फुलझडिय़ाँ-सी ऊपर से उतरती और तैरती हुई उसकी आँखों के सामने से निकल जातीं। उसे अपनी ज़बान और होंठों के बीच एक फ़ासला-सा महसूस हो रहा था। उसने अंगोछे से होंठों के कोनों को साफ़ किया। साथ ही उसके मुँह से निकला, "हे प्रभु, तू ही है, तू ही है, तू! ही है!"

गनी ने देखा कि पहलवान के होंठ सूख रहे हैं और उसकी आँखों के गिर्द दायरे गहरे हो गये हैं। वह उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोला, "जो होना था, हो गया रक्खिआ! उसे अब कोई लौटा थोड़े ही सकता है! खुदा नेक की नेकी बनाये रखे और बद की बदी माफ़ करे! मैंने आकर तुम लोगों को देख लिया, सो समझूँगा कि चिराग को देख लिया। अल्लाह तुमहें सेहतमन्द रखे!" और वह छड़ी के सहारे उठ खड़ा हुआ। चलते हुए उसने कहा, "अच्छा रक्खे, पहलवान!"

रक्खे के गले से मद्धिम-सी आवाज़ निकली। अंगोछा लिये हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गये। गनी हसरत-भरी नज़र से आसपास देखता हुआ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।

ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेहमेगोइयाँ चलती रहीं-कि मनोरी ने गली से बाहर निकलकर ज़रूर गनी को सब कुछ बता दिया होगा कि गनी के सामने रक्खे का तालू कैसे खुश्क हो गया था!...रक्खा अब किस मुँह से लोगों को...मलबे पर गाय बाँधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! कितनी अच्छी थी वह! रक्खे मरदूद का घर...न घाट, इसे किसी की माँ-बहन का लिहाज़ था?

थोड़ी देर में स्त्रियाँ घरों से गली में उतर आयीं। बच्चे गली में गुल्ली-डंडा खेलने लगे। दो बारह-तेरह साल की लड़कियाँ किसी बात पर एक-दूसरी से गुत्थम-गुत्था हो गयीं।

रक्खा गहरी शाम तक कुएँ पर बैठ खंखारता और चिलम फूँकता रहा। कई लोगों ने वहाँ गुज़रते हुए उससे पूछा, "रक्खे शाह, सुना है आज गनी पाकिस्तान से आया था?"

"हाँ, आया था," रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया।

"फिर?"

"फिर कुछ नहीं। चला गया।"

रात होने पर रक्खा रोज़ की तरह गली के बाहर बायीं तरफ़ की दुकान के तख्ते पर आ बैठा। रोज़ वह रास्ते से गुज़रने वाले परिचित लोगों को आवाज़ दे-देकर पास बुला लेता था और उन्हें सट्‌टे के गुर और सेहत के नुस्खे बताता रहता था। मगर उस दिन वह वहाँ बैठा लच्छे को अपनी वैष्नो देवी की उस यात्रा का वर्णन सुनाता रहा जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी। लच्छे को भेजकर वह गली में आया, तो मलबे के पास लोकू पंडित की भैंस को देखकर वह आदत के मुताबिक उसे धक्के दे-देकर हटाने लगा, "तत-तत-तत...तत-तत...!!"

भैंस को हटाकर वह सुस्ताने के लिए मलबे के चौखट पर बैठ गया। गली उस समय सुनसान थी। कमेटी की बत्ती न होने से वहाँ शाम से ही अँधेरा हो जाता था। मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज़ करता बह रहा था। रात की ख़ामोशी को काटती हुई कई तरह की हल्की-हल्की आवाज़ें मलबे की मिट्‌टी में से सुनाई दे रही थीं...च्यु-च्यु-च्यु...चिक्‌-चिक्‌-चिक्‌...किर्‌र्‌र्‌र्‌-र्‌र्‌र्‌र्‌-रीरीरीरी-चिर्‌र्‌र्‌र्‌...। एक भटका हुआ कौआ न जाने कहाँ से उडक़र उस चौखट पर आ बैठा। इससे लकड़ी के कई रेशे इधर-उधर छितरा गये। कौए के वहाँ बैठते न बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्राकर उठा और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा-वऊ-अऊ-वउ! कौआ कुछ देर सहमा-सा चौखट पर बैठा रहा, फिर पंख फडफ़ड़ाता कुएँ के पीपल पर चला गया। कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की तरफ़ मुँह करके भौंकने लगा। पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज़ में बोला, "दुर्‌ दुर्‌ दुर्‌...दुरे!" मगर कुत्ता और पास आकर भौंकने लगा-वऊ-अउ-वउ-वउ-वउ-वउ...।

पहलवान ने एक ढेला उठाकर कुत्ते की तरफ़ फेंका। कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ। पहलवान कुत्ते को माँ की गाली देकर वहाँ से उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जाकर कुएँ की सिल पर लेट गया। उसके वहाँ से हटते ही कुत्ता गली में उतर आया और कुएँ की तरफ़ मुँह करके भौंकने लगा। काफ़ी देर भौंकने के बाद जब उसे गली में कोई प्राणी चलता-फिरता नज़र नहीं आया, तो वह एक बार कान झटककर मलबे पर लौट गया और वहाँ कोने में बैठकर गुर्राने लगा।

Saturday, May 9, 2015

गिल्लू

4:13 AM
महादेवी वर्मा
सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है।

परंतु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा। कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने ऊपर आ गया हो!
अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौवे एक गमले के चारों ओर चोंचों से छूआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुंडि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित।
हमारे बेचारे पुरखे न गरूड़ के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौवा और काँव-काँव करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते हैं।

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रफ़क गई। निकट जाकर देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है जो संभवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौवे जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं।
काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपटा पड़ा था।

सबने कहा, कौवे की चोंच का घाव लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः  इसे ऐसे ही रहने दिया जावे।

परंतु मन नहीं माना -उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लाई, फिर रूई से रक्त पोंछकर घावों पर पेंसिलिन का मरहम लगाया।रूई की पतली बत्ती दूध से भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हे से मुँह में लगाई पर मुँह खुल न सका और दूध की बूँदें दोनों ओर ढुलक गईं। कई घंटे के उपचार के उपरांत उसके मुँह में एक बूँद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हे पंजों से पकड़कर, नीले काँच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा।तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोए, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको विस्मित करने लगीं। 

हमने उसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हलकी डलिया में रूई बिछाकर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया। वही दो वर्ष गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर में झूलता और अपनी काँच के मनकों -सी आँखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परंतु उसकी समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था। जब मैं लिखने बैठती तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।  

वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती। कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघुगात लिफ़ाफ़े के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहर वाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता। फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम बसंत आया। नीम-चमेली की गंध मेरे कमरे में हौले-हौले आने लगी। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं?  

गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है। मैंने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की साँस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते, बिल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी।

आवश्यक कागज़ -पत्रों के कारण मेरे बाहर जाने पर कमरा बंद ही रहता है। मेरे कालेज से लौटने पर जैसे ही कमरा खोला गया और मैंने भीतर पैर रखा, वैसे ही गिल्लू अपने जाली के द्वार से भीतर आकर मेरे पैर से सिर और सिर से पैर तक दौड़ लगाने लगा। तब से यह नित्य का क्रम हो गया। मेरे कमरे से बाहर जाने पर गिल्लू भी खिड़की की खुली जाली की राह बाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुंड का नेता बना हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने  झूले में झूलने लगता।

मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गई थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुन्नट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में। मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है, परंतु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिम्मत हुई है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। गिल्लू इनमें अपवाद था। मैं जैसे ही खाने के कमरे में पहुँचती, वह खिड़की  से निकलकर आँगन की दीवार, बरामदा पार करके मेज़ पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया जहां बैठकर वह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफ़ाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर वह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता या झूले से नीचे फेंक देता था।

उसी बीच मुझे मोटर दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा।  उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाजा खोला जाता गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर उसी तेज़ी से अपने घोंसले में जा बैठता।  सब उसे काजू दे आते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफ़ाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि वह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा। मेरी अस्वस्थता में वह तकिए पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को इतने हौले-हौले सहलाता रहता कि उसका हटना एक परिचारिका के हटने के समान लगता।

गरमियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता न अपने झूले में बैठता। उसने मेरे निकट रहने के साथ गरमी से बचने का एक सर्वथा नया उपाय खोज निकाला था। वह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता।
गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया न बाहर गया। रात में अंत की यातना में भी वह अपने झूले से उतरकर मेरे बिस्तर पर आया और ठंडे  पंजों से मेरी वही उँगली पकड़कर हाथ से चिपक गया, जिसे उसने अपने बचपन की मरणासन्न स्थिति में पकड़ा था। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैंने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परंतु प्रभात की प्रथम किरण के स्पर्श के साथ ही वह किसी और जीवन में जागने के लिए सो गया।
उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परंतु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही पर बसंत आता ही रहता है। सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू को समाधि दी गई है - इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी - इसलिए भी कि उस लघुगात का, किसी वासंती दिन,  जुही के पीताभ छोटे फूल में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है।

Friday, May 8, 2015

गत्ती भगत

3:25 AM
भैरव प्रसाद गुप्त
उस दिन जिधर सुनो, गाँव में छोटे-बड़े सभी के मुँह से अफ़सोस और ताज्जुब के साथ एक ही बात सुनाई दे रही थी, 'गत्ती भगत की कण्ठी टूट गयी!'

कण्ठी पहनने और तोडऩे, दोनों की शोहरत गाँवों में एक ही तरह फैलती है। हाँ, पहनने की बात सुनकर जहाँ लोगों को ख़ुशी होती है, वहाँ तोडऩे की बात सुनकर अफ़सोस। लेकिन ताज्जुब का भाव दोनों में एक-सा ही रहता है। कोई लुच्चा-लफंगा, बदमाश-शोहदा या माँस-मछली खाने और दारू पीनेवाला अचानक एक दिन गले में तुलसी कण्ठी पहनकर भलमानस और भगत बन जाय, तो किसे ख़ुशी और ताज्जुब न हो? और वही भलमानस और भगत दो-चार महीने या साल भगत की जि़न्दगी बिताकर, अपनी सचाई, भलमनसाहत, पवित्रता और पूजा-पाठ की धाक लोगों के मन पर जमाकर एक दिन अचानक कण्ठी तोडक़र अपनी पुरानी जि़न्दगी के तौर-तरीकों को वापस लौट जाय, तो किसे अफ़सोस और ताज्जुब न हो?

और गत्ती भगत के मामले में तो अफ़सोस और ताज्जुब का और भी कारण था। गत्ती कभी भी चोर या लफंगा न रहा था और न कभी उसने दारू को ही मुँह लगाया था। उसकी जि़न्दगी सभी साधारण किसानों की तरह थी। हाँ, वह माँस-मछली ज़रूर खाता था, लेकिन यह तो लोगों के देखने में कोई वैसा अपराध न था। कुछ ब्राह्मणों और आर्यसमाजियों को छोडक़र गाँवों में कौन माँस-मछली नहीं खाता? फिर उसने कण्ठी भी अपने मन से, अपने बुरे आचरणों, असामाजिक कार्यों को छोडऩे की घोषणा करके नहीं पहनी थी। उसकी कण्ठी की तो एक अलग ही दिलचस्प कहानी थी।

कहा जाता है कि एक रात सोता पडऩे पर अचानक एक साधु ने गत्ती का दरवाज़ा खटखटाया। गत्ती ने दरवाज़ा खोलकर, सामने साधु को खड़ा देखकर नमन किया।

साधु ने कहा, ''बच्चा, ठाकुरजी आज रात तेरे दरवाज़े पर ही काटना चाहते हैं। देगा आसरा?''

गत्ती ने हाथ माथे से लगाकर, सर झुकाकर कहा, ''मेरा बड़ा भाग, बाबा! ख़ुशी से मिरगछाला डालें।'' और उसने दालान के कोने को अँगोछे से झाड़-पोंछ दिया।

साधु ने मृगछाला डाल चिमटा गाड़ दिया। फिर पाँव पसारकर लेटने को हुआ, तो गत्ती बोला, ''बाबा, परसाद पा चुके हैं?''

साधु मुस्कराया। फिर बोला, ''बड़ी दूर से ठाकुरजी आ रहे हैं। कहीं ... कहीं टिकने का इरादा नहीं था। इतनी रात गये ठाकुरजी तुझे क्या कष्ट दें?''

''इसमें कस्ट की का बात बाबा? जो साग-सातू ... '' बात मुँह में ही लिये गत्ती अन्दर जाने लगा, तो साधु बोला, ''ठाकुरजी कुछ बनाएँगे नहीं। बहुत थक गये हैं। चना-चबेना कुछ हो ... ''

गत्ती ने ठिठककर, चिन्तित होकर कुछ सोचा। फिर अन्दर जाकर मेहरी से पूछा, तो मालूम हुआ कि आज ही का भूना सत्तू के लिए मक्का रखा है। बेर हो जाने से वह पीस न सकी थी।

एक साफ़ डाली में भूना मक्का और एक पिड़िया बढ़िया गुड़ और चमचमाते पीतल के लोटे में जल लाकर गत्ती ने साधु के सामने रख दिया।

साधु खा-पीकर तृप्त हो गया। सोंधा-सोंधा मक्का उसे खूब भाया। उसकी सुगन्ध तो जैसे अब भी दालान में मँडरा रही थी।

आराम से लेटकर, साधु ने हाथों की अँगुलियाँ उलझाये, सर झुकाये खड़े गत्ती की ओर देखकर कहा, ''बच्चा, ठाकुरजी की आत्मा तृप्त हो गयी। ठाकुरजी तुझसे बहुत प्रसन्न हुए। तू ठाकुरजी से कुछ माँग ले।''

संकोच में गत्ती के होंठ ज़रा मुस्कराये, बोल न फूटा।

साधु ही बोला, ''अच्छा देख, ठाकुरजी तुझे एक दवा बता देते हैं। इससे तुझे बड़ा यश मिलेगा। तेरा नाम दूर-दूर तक फैल जायगा।''

गत्ती मुँह बाए बैठ गया। साधु बोलता गया, ''उकवत का रोग होता है न? इसकी कोई दवा दुनिया में नहीं हैं। बड़े-बड़े डाक्टर हकीम भी इस रोग के सामने हार मान जाते हैं। तुझे उसी की दवा ठाकुरजी बताते हैं। ध्यान से सुन!''

दो क्षण चुप रहकर साधु बोला, ''नाई को बुलाकर उकवत के रोगी के चाँद पर थोड़ा बाल छिलवाकर, उस्तरे की नोक से दस-पाँच टोप मारने को कहना। ऊपर जब कुछ खून आ जाय, तो उस पर तू अपने दायें हाथ के अँगूठे से यह दबा बैठा देना।'' कहकर अपने बटुए से निकालकर एक पुड़िया सफ़फ़ साधु ने गत्ती की ओर बढ़ा दिया।

गत्ती ने पुड़िया लेकर, माथे से लगायी और पलकें झपकाकर साधु की ओर देखने लगा।

साधु ने आगे कहा, ''दवा लगाने के बाद तू रोगी को हिदायत देना कि इक्कीस दिन तक वह सर पर पानी न डाले, कन्धे से ही नहाये, उकवत के घाव की जगह को रोज ठण्डे पानी से धोये, उस पर कोई दवा न लगाये। इक्कीस दिन के बाद घाव सूख जाने पर एक ब्राह्मण या साधु को भोजन करा दे। हाँ, तू उससे कुछ न लेगा, न उसे कुछ देगा। अपने यहाँ उसे न ठहराएगा, न कुछ बैठने को देगा और न एक लोटा पानी पीने को। नाई को वह जो चाहे दे। एक बात का और ध्यान रखना। इतवार और मंगल को ही तू यह दवा लगाना। और किसी दिन नहीं। समझा न?''

''जी, बाबा,'' गत्ती ने ताज्जुब और ख़ुशी से आँखें झपकाकर कहा, ''बाकी जब यह पुड़िया खतम हो जाय तब?''

साधु ज़ोर से हँसकर बोला, ''सबर रख, बच्चा! ठाकुरजी तुझे इसका भेद भी बता देते हैं। बहुत मामूली चीज है। चिलम तू पीता है न? उसी की सात हिस्सा खोंठी और एक हिस्सा नमक मिलाकर, पीसकर पुड़िया में रख लेना। एक बात का ख़ याल रखना। माँस, मछली, ताड़ी-दारू न खाना-पीना, झूठ न बोलना, अपना चाल-चलन ठीक रखना। यह कण्ठी अपने गले में डाल ले।'' कहकर साधु ने उसे एक कण्ठी अपने बटुए से निकालकर दी। और फिर बोला, ''और देख, जब तू मरने लगना, तो यह भेद अपनी औरत या बेटे-बेटी में से किसी एक को बता देना। तेरे घर में यह सदा चलता रहेगा। अच्छा, अब तू जा, ठाकुरजी आराम करेंगे।''

दूसरे दिन सुबह, जब गत्ती उठा, तो साधु जा चुका था। गत्ती के गले में कण्ठी देखकर, लोगों ने पूछा-ताँछा, तो गत्ती ने रात की कथा सब को खुश-खुश सुना दी।

मुँह-मुँह से बात फैली और देश के कोने-कोने में छा गयी। कोई ऐसा इतवार और मंगल नहीं, जब गत्ती के दरवाज़े पर उकवत के रोगियों की भीड़ न होती। दूर-दूर से, कलकत्ता, बम्बई और दिल्ली तक के उकवत के अमीर-ग़रीब रोगी उस मामूली किसान, गत्ती के दरवाज़े दवा लगवाने आने लगे। टीसन से पन्द्रह मील दूर, अनजाना छोटा-सा गाँव, न कोई सर न सवारी, फिर भी लोग पूछते-आँछते पहुँच जाते। लडक़े, जवान, बूढ़े, पुराने रोगी और नये, जिसे जहाँ से, जैसे गत्ती की खबर मिलती, भागा-भागा आ पहुँचता। और कमाल यह कि सब अच्छे हो जाते।

और गत्ती कोइरी अब गत्ती भगत बन गया। उसके भोले-भाले, धर्म-भीरु दिल और दिमाग़ पर साधु की बातों और दवा के कमाल का कुछ ऐसा असर पड़ा कि उसकी जि़न्दगी ही बदल गयी। वह बड़े नियम से स्नान-पूजा करने लगा, माँस-मछली छोड़ दिया और ऐसा पवित्र आचरण करने लगा, कि लोगों को आश्चर्य होता। सूरज पूरब के बजाय पश्चिम में उग जाय, यह सम्भव, लेकिन गत्ती भगत के मुँह से कोई झूठ बात निकल जाय, उससे कभी कोई अन्याय हो जाय, किसी मौक़े पर वह क्रोध-मोह-लोभ दरशाये, यह असम्भव!

कई बार ऐसा हुआ कि कोई सेठ-साहूकार या कोई ज़मींदार-ताल्लुक़ेदार या कोई हाकिम-अफ़सर दवा लगवाने आया और खुश होकर या अपना बड़प्पन दिखाने के लिए या इनाम के बतौर उस लँगोटी बाँधे किसान को कुछ देना चाहा या उससे कुछ माँगने को कहा, तो गत्ती भगत ने उसे दुत्कार दिया, जैसे कोई क्या कुत्ते को दुतकारेगा।

और गत्ती भगत का मान गाँव में सबसे ऊँचा हो गया। क्या छोटा, क्या बड़ा, सब उसकी इज़्ज़त करते, सब उसकी बात की क़दर करते। कहीं कोई झगड़ा हो, पर-पंचायत हो, गत्ती भगत बुलाया जाता, और जो भी इंसाफ़ वह कर देता, वह सर झुकाकर मान लेते। गत्ती भगत दूर-दूर तक अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर हो गया।

देखते-देखते पूरे पचीस साल गुज़र गये। जवान गत्ती भगत बूढ़ा हो गया; लेकिन कोई बात है कि कभी उसका पन टूटा हो, कभी उसके ईमान में कोई फ़र्क पड़ा हो।

और उसी गत्ती भगत की उस दिन कण्ठी टूट गयी, यह क्या कोई मामूली अफ़सोस और ताज्जुब की बात थी? जिसने सुना ताज्जुब से जीभ दबायी, जिसे मालूम हुआ, च-च किया। लेकिन गत्ती भगत ...

बात यों हुई।

उन्नीस सौ पचास का ज़माना था। ज़मींदार और किसानों के बीच गाँव में तनातनी चल रही थी। सुनने में आ रहा था कि ज़मींदारी जल्दी ही टूटने वाली है, और जो ज़मीन जिसकी जोत में है, उस पर उसी का अधिकार हो जाएगा। ज़मींदार की अपनी जोत में कोई ज़मीन न थी। उसके सारे खेत किसान सालों से सिकमी पर जोत रहे थे। जब ज़मींदार ने ज़मींदारी टूटने की अफ़वाह सुनी, तो उसने एक फ़ारम खोलने की घोषणा की और यह बात फैलायी कि जो यों न खेत छोड़ेगा, उसका खेत पुलीस-द्वारा बेदख़ल करके फ़ारम में मिला दिया जाएगा। ऐसा कानून बना है कि फ़ारम के लिए सरकार सब सहूलियतें देगी और कानून के ज़ोर से जितनी ज़मीन की ज़रूरत फ़ारम की होगी, दिलाई जाएगी। पहले हल्ले में उसने कुछ खेत निकलवा भी लिये। लेकिन जब किसानों को होश आया और उन्होंने देखा कि इस तरह तो सब-के-सब एक दिन बेदख़ ल कर दिये जाएँगे, तो उन्होंने अपनी पंचायत की। जीवन-मरन का सवाल था, पुश्तों से जोत में चले आये खेतों का वास्ता था, निकल गये, तो किस सहारे जि़न्दगी काटेंगे? बहुत कोशिश की गयी कि गत्ती भगत पंचायत में आये और किसानों को सही सलाह दे, लेकिन वह नहीं आया। कानून को वह नहीं जानता, बिना समझे-बूझे वह कैसे कुछ कह सकता। फिर भी किसानों की पंचायत हुई। ख़बर देकर रामाधार को बुलाया गया। रामाधार उस जवार का किसानों का कम्युनिस्ट नेता था। उसकी गिरफ़्तारी कर लेना कोई ठठ्ठा न था। किसान उसे वैसे ही छिपाये रहते, जैसे मुर्गी अपना अण्डा।

रामाधार के समझाने-बुझाने पर सबने मिलकर तै किया कि चाहे जो हो, वे अपना खेत न छोड़ेंगे। सब मिलकर ज़मींदार का मुक़ाबिला करेंगे और बेदख़ ल खेतों को उनके सिकमीदारों को वापस दिलाएँगे।

संघर्ष की दुन्दुभी बज गयी।

दूसरे दिन बेदख़ल खेतों पर किसान दख़ ल करनेवाले थे। ज़मींदार को हवा लगी, तो खुद दौड़ा-दौड़ा थाने गया। अगर किसानों ने उनके निकाले खेतों पर क़ब्जा कर लिया, तो उनका साहस बढ़ा जाएगा। सब बना-बनाया खेल बिगड़ जाएगा। शुरू ही में उनका मनसूबा न तोड़ दिया गया, तो फिर खैर नहीं। दारोग़ा की मुठ्ठियाँ गर्म हुईं। उस पर ज़मींदार ने यह भी बताया कि रामाधार को वहाँ आसानी से गिरफ़्तार भी किया जा सकता है। वह ज़रूर कल वहाँ आएगा, वही तो सब खुराफ़ातों की जड़ है, वर्ना किसानों की क्या हिम्मत, जो उसके सामने सर उठाते? रामाधार को गिरफ़्तार करना दारोग़ा के लिए वैसा ही था, जैसे किसी बड़ी तरक्की के लिए कोई डिपार्टमेण्टल परीक्षा पास करना।

किसानों को ज़मींदार के इस हथकण्डे का पता चला, तो रात को फिर पंचायत बुलायी गयी। रामाधार से पूछा गया कि अगर पुलिस मुदाख़ लत करे, तो उन्हें क्या करना चाहिए? सवाल बहुत टेढ़ा था। सब की अलग-अलग राय थी। कोई कहता कि बेदख़ ल खेतों को अभी न छेडऩा ही बेहतर है; कोई कहता हम पुलिस से भी भिड़ लेंगे; कोई कहता, ज़मींदार से समझौता कर लिया जाय; आदि-आदि। रामाधार की राय थी कि यह मसला सिर्फ़ इसी गाँव का नहीं है। जवार के सभी गाँवों में ज़मींदार और पुलिस यही धाँधली कर रहे हैं। पुलिस का मुक़ाबिला करना अकेले एक गाँव के बूते की बात नहीं है। सब गाँवों के किसानों को मिलकर यह मोर्चा लेना चाहिए। तभी मसला हल हो सकता है। मसले को छोडऩे और दूर हटाने से सब किसान एक-एक कर पिट जाएँगे और एक दिन सब बेदख़ ल कर दिये जाएँगे।

बात आसान न थी। बातचीत होते-होते बेर हो गयी। चारों ओर सोता पड़ गया। लेकिन किसी नतीजे पर पहुँचना अब भी मुश्किल दिखाई दे रहा था। जिनके खेत बेदख़ ल हुए थे, वे चाहते थे कि कुछ ऐसा जल्द और ज़रूर किया जाय कि उनके खेत वापस मिल जाएँ। वे जान देने के लिए भी तैयार थे।

तभी रामाधार के एक साथी ने दौड़े-दौड़े आकर बताया कि पुलिस आ गयी। अपने बचाव का जल्द इन्तज़ाम करो।

सब हड़बड़ में उठ खड़े हुए। अब?

गाँव में ठहरना ठीक नहीं। तलाशी हो सकती है। सब बाहर आये, तो बूटों की आवाज़ पास ही सुनाई पड़ी। सूचना देर से मिली थी। अब सोचने समझने का वक़्त कहाँ? सब को बिखर जाने को कहकर रामाधार अपने साथी के साथ आगे बढ़ा कि अँधेरे में सामने से बूटों की आवाज़ आयी। वे बग़ल की गली में मुड़े तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि चारों ओर से बूटों की आवाज़ आ रही है। रामाधार साथी को एक ओर जाने का इशाराकर, सामने घर की ओर बढ़ा, तो साथी ने फुसफुसाकर कहा, ''उस घर में नहीं। वह गत्ती भगत का घर है। पूछने पर वह सच बता देगा।''

आवाज़ें नज़दीक आती जा रही थी। कोई चारा न था। रामाधार ने 'कोई हर्ज नहीं' का संकेत किया और घर की ओर बढ़ गया।

दरवाज़ा खुला था। दालान में गत्ती पीढ़ी पर बैठा हुक्का गुडग़ुड़ा रहा था। रामाधार ने सामने जाकर कहा, ''दादा, पुलिस पीछे पड़ गयी है। जाने का किसी ओर रास्ता नहीं। आज रात ... ''

गत्ती भगत हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। और एक क्षण कुछ सोचकर उसने रामाधार की बाँह पकडक़र, बिना कुछ बोले, उसे अन्दर ढकेल दिया और खुद पीढ़ी से उठ, बाहर सहन में आ, दरवाज़ा खुला छोड़, बैठकर हुक्का गुडग़ुड़ाने लगा।

रात-भर पुलिस गाँव में हडक़म्प मचाये रही। सब ओर से नाकेबन्दी करके, सारी गलियाँ बूटों से रौंद दी गयीं। लेकिन फ़रार का कहीं पता न चला। तब ज़मींदार की राय से ख़ानातलाशी हुई। कहीं-न-कहीं गाँव में ही रामाधार छिपा होगा। दौड़ बिल्कुल वक़्त पर पहुँची थी। वह भागकर कैसे निकल सकता है।

सहमे हुए औरत-मर्द और बच्चे एक ओर खड़े हो जाते। पुलिस दो छन में तलाशी ले लेती। छोटे-छोटे घर और झोंपड़े। देखने-सुनने में वक़्त ही कितना लगता? आगे-आगे ज़मींदार और दारोग़ा और पीछे-पीछे पुलिस के सिपाही।

गत्ती भगत बदस्तूर सहन में बैठा हुक्का गुडग़ुड़ा रहा था, जैसे जो-कुछ गाँव में हो रहा था, उसे कुछ पता ही न हो। पुलिस का दल जब सहन में पहुँचा, तो वह हुक्का हाथ में लिये ही खड़ा हो गया और उसने ज़मींदार और दारोग़ा को सलाम किया। ज़मींदार ने पूछा, ''रामाधार कहीं तुम्हारे घर में तो नहीं घुसा?''

गत्ती भगत ने आँखें झपकाकर कहा, ''इस घर में उसका का काम, सरकार? मैं तो साँझ से ही यहाँ सहन में बैठा हूँ। का करूँ, रात में नींद नहीं आती। अब चला-चली का बखत आ गया।'' कहकर उसने जम्हाई ली।

''हम तलाशी लेना चाहते हैं,'' दारोग़ा ने कहा।

''ले लीजिए, सरकार,'' गत्ती ने हुक्का दीवार से टिकाकर कहा, ''दरवाजा तो खुला ही है।''

''नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। बेकार वक़्त खराब करना ठीक नहीं। यह गत्ती भगत हैं। कभी झूठ नहीं बोलता। आगे चलिए!'' और ज़मींदार के पीछे-पीछे दल आगे बढ़ गया। ...

रामाधार तो बच गया, लेकिन गत्ती भगत की यह बात जब लोगों को मालूम हुई, तो सभी के मुँह से अफ़सोस और ताज्जुब के साथ बस एक ही बात निकली, ''गत्ती भगत की कण्ठी टूट गयी!''

लेकिन गत्ती भगत से जब कोई पूछता, तो वह कहता, ''कण्ठी काहे को टूट गयी? गाय को कसाई के हाथ से बचाने के लिए झूठ बोलना का पाप है? अगर मैंने कोई पाप किया है, तो मेरे हाथ में जस नहीं रहेगा। आज से जो दवा मैं लगाऊँगा, उससे रोगी अच्छा नहीं होगा। मेरे जस-अजस की यही कसौटी है!''

और लोगों ने दूने ताज्जुब से देखा कि गत्ती भगत के हाथों का जस जैसा-का-तैसा बना रहा। उसकी दवा के कमाल में कोई फ़र्क नहीं आया।

लेकिन उस दिन से ज़मींदार और दारोग़ा की नज़रों में गत्ती भगत बदल गया। उनके यहाँ उसका नाम कम्युनिस्टों में लिख लिया गया।

Thursday, May 7, 2015

अनमोल भेंट

5:25 AM
रवीन्द्रनाथ टैगोर
रायचरण बारह वर्ष की आयु से अपने मालिक का बच्‍चा खिलाने पर नौकर हुआ था। उसके पश्चात् काफ़ी समय बीत गया। नन्हा बच्‍चा रायचरण की गोद से निकलकर स्कूल में प्रविष्ट हुआ, स्कूल से कॉलिज में पहुँचा, फिर एक सरकारी स्थान पर लग गया। किन्तु रायचरण अब भी बच्‍चा खिलाता था, यह बच्‍चा उसकी गोद के पाले हुए अनुकूल बाबू का पुत्र था।

बच्‍चा घुटनों के बल चलकर बाहर निकल जाता। जब रायचरण दौड़कर उसको पकड़ता तो वह रोता और अपने नन्हे-नन्हे हाथों से रायचरण को मारता।

रायचरण हंसकर कहता- हमारा भैया भी बड़ा होकर जज साहब बनेगा- जब वह रायचरण को चन्ना कहकर पुकारता तो उसका हृदय बहुत हर्षित होता। वह दोनों हाथ पृथ्वी पर टेककर घोड़ा बनता और बच्‍चा उसकी पीठ पर सवार हो जाता।

इन्हीं दिनों अनुकूल बाबू की बदली परयां नदी के किनारे एक ज़िले में हो गई। नए स्थान की ओर जाते हुए कलकत्ते से उन्होंने अपने बच्चे के लिए मूल्यवान आभूषण और कपड़ों के अतिरिक्त एक छोटी-सी सुन्दर गाड़ी भी ख़रीदी।

वर्षा ऋतु थी। कई दिनों से मूसलाधर वर्षा हो रही थी। ईश्वर-ईश्वर करते हुए बादल फटे। संध्या का समय था। बच्चे ने बाहर जाने के लिए आग्रह किया। रायचरण उसे गाड़ी में बिठाकर बाहर ले गया। खेतों में पानी खूब भरा हुआ था। बच्चे ने फूलों का गुच्छा देखकर ज़िद की, रायचरण ने उसे बहलाना चाहा किन्तु वह न माना। विवश रायचरण बच्चे का मन रखने के लिए घुटनों-घुटनों पानी में फूल तोड़ने लगा। कई स्थानों पर उसके पांव कीचड़ में बुरी तरह धंस गये। बच्‍चा तनिक देर मौन गाड़ी में बैठा रहा, फिर उसका ध्यान लहराती हुई नदी की ओर गया। वह चुपके से गाड़ी से उतरा। पास ही एक लकड़ी पड़ी थी, उठा ली और भयानक नदी के तट पर पहुंचकर उसकी लहरों से खेलने लगा। नदी के शोर में ऐसा मालूम होता था कि नदी की चंचल और मुंहजोर जल-परियां सुन्दर बच्चे को अपने साथ खेलने के लिए बुला रही हैं।

रायचरण फूल लेकर वापस आया तो देखा गाड़ी ख़ाली है। उसने इधर-उधर देखा, पैरों के नीचे से धरती निकल गई। पागलों की भांति चहुंओर देखने लगा। वह बार-बार बच्चे का नाम लेकर पुकारता था लेकिन उत्तर में 'चन्ना' की मधुर ध्वनि न आती थी।

चारों ओर अंधेरा छा गया। बच्चे की माता को चिन्ता होने लगी। उसने चारों ओर आदमी दौड़ाये। कुछ व्यक्ति लालटेन लिये हुए नदी के किनारे खोज करने पहुँचे। रायचरण उन्हें देखकर उनके चरणों में गिर पड़ा। उन्होंने उससे प्रश्न करने आरम्भ किये किन्तु वह प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में यही कहता-मुझे कुछ मालूम नहीं।

यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की यह सम्मति थी कि छोटे बच्चे को परयां नदी ने अपने आंचल में छिपा लिया है किन्तु फिर भी हृदय में विभिन्न प्रकार की शंकायें उत्पन्न हो रही थीं। एक यह कि उसी संध्या को निर्वासितों का एक समूह नगर से गया था और मां को संदेह था कि रायचरण ने कहीं बच्चे को निर्वासित के हाथों न बेच दिया हो। वह रायचरण को अलग ले गई और उससे विनती करते हुए कहने लगी-रायचरण, तुम मुझसे जितना रुपया चाहो ले लो, किन्तु परमात्मा के लिए मेरी दशा पर तरस खाकर मेरा बच्‍चा मुझको वापस कर दो।

परन्तु रायचरण कुछ उत्तर न दे सका, केवल माथे पर हाथ मारकर मौन हो गया।

स्वामिनी ने क्रोध और आवेश की दशा में उसको घर-से बाहर निकाल दिया। अनुकूल बाबू ने पत्नी को बहुत समझाया किन्तु माता के हृदय से शंकाएं दूर न हुईं। वह बराबर यही कहती रही कि- मेरा बच्‍चा सोने के आभूषण पहने हुए था, अवश्य इसने...

रायचरण अपने गांव वापस चला आया। उसे कोई सन्तान न थी और न ही सन्तान होने की कोई सम्भावना थी। किन्तु साल की समाप्ति पर उसके घर पुत्र ने जन्म लिया; परन्तु पत्नी सूतिका-गृह में ही मर गई। घर में एक विधवा बहन थी। उसने बच्चे के पालन-पोषण का भार अपने ऊपर लिया।

जब बच्‍चा घुटनों के बल चलने लगा, वह घर वालों की नजर बचा कर बाहर निकल जाता। रायचरण जब उसे दौड़कर पकड़ता तो वह चंचलता से उसको मारता। उस समय रायचरण के नेत्रों के सामने अपने उस नन्हें मालिक की सूरत फिर जाती जो परयां नदी की लहरों में लुप्त हो गया था।

बच्चे की जबान खुली तो वह बाप को 'बाबा' और बुआ को 'मामा' इस ढंग से कहता था जिस ढंग से रायचरण का नन्हा मालिक बोलता था। रायचरण उसकी आवाज़ से चौंक उठता। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसके मालिक ने उसके घर में जन्म लिया है।

इस विचार को निर्धारित करने के लिए उसके पास तीन प्रमाण थे। एक तो यह कि वह नन्हे मालिक की मृत्यु के थोड़े ही समय पश्चात् उत्पन्न हुआ। दूसरे यह कि उसकी पत्नी वृध्द हो गई थी और सन्तान-उत्पत्ति की कोई आशा न थी। तीसरे यह कि बच्चे के बोलने का ढंग और उसकी सम्पूर्ण भाव-भंगिमाएं नन्हे मालिक से मिलती-जुलती थीं।

वह हर समय बच्चे की देख-भाल में संलग्न रहता। उसे भय था कि उसका नन्हा मालिक फिर कहीं गायब न हो जाए। वह बच्चे के लिए एक गाड़ी लाया और अपनी पत्नी के आभूषण बेचकर बच्चे के लिए आभूषण बनवा दिये। वह उसे गाड़ी में बिठाकर प्रतिदिन वायु-सेवन के लिए बाहर ले जाता था।

धीरे-धीरे दिन बीतते गये और बच्‍चा सयाना हो गया। परन्तु इस लाड़-चाव में वह बहुत बिगड़ गया था। किसी से सीधे मुंह बात न करता। गांव के लड़के उसे लाट साहब कहकर छेड़ते।

जब लड़का शिक्षा-योग्य हुआ तो रायचरण अपनी छोटी-सी ज़मीन बेचकर कलकत्ता आ गया। उसने दौड़-धूप करके नौकरी खोजी और फलन को स्कूल में दाखिल करवा दिया। उसको पूर्ण विश्वास था कि बड़ा होकर फलन अवश्य जज बनेगा।

होते-होते अब फलन की आयु बारह वर्ष हो गई। अब वह खूब लिख-पढ़ सकता था। उसका स्वास्थ्य अच्छा और सूरत-शक्ल भी अच्छी थी। उसको बनाव- शृंगार की भी बड़ी चिन्ता रहती थी। जब देखो दर्पण हाथ में लिये बाल बना रहा है।

वह अपव्ययी भी बहुत था। पिता की सारी आय व्यर्थ की विलास-सामग्री में व्यय कर देता। रायचरण उससे प्रेम तो पिता की भांति करता था, किन्तु प्राय: उसका बर्ताव उस लड़के से ऐसा ही था जैसे मालिक के साथ नौकर का होता है। उसका फलन भी उसे पिता न समझता था। दूसरी बात यह थी कि रायचरण स्वयं को फलन का पिता प्रकट भी न करता था।

छात्रावास के विद्यार्थी रायचरण के गंवारपन का उपहास करते और फलन भी उन्हीं के साथ सम्मिलित हो जाता।

रायचरण ने ज़मीन बेचकर जो कुछ रुपया प्राप्त किया था वह अब लगभग सारा समाप्त हो चुका था। उसका साधारण वेतन फलन के खर्चों के लिए कम था। वह प्राय: अपने पिता से जेब-खर्च और विलास की सामग्री तथा अच्छे-अच्छे वस्त्रों के लिए झगड़ता रहता था।

आखिर एक युक्ति रायचरण के मस्तिष्क में आई उसने नौकरी छोड़ दी और उसके पास जो कुछ शेष रुपया था फलन को सौंपकर बोला- फलन, मैं एक आवश्यक कार्य से गांव जा रहा हूं, बहुत जल्द वापस आ जाऊंगा। तुम किसी बात से घबराना नहीं।

2

रायचरण सीधा उस स्थान पर पहुंचा जहां अनुकूल बाबू जज के ओहदे पर लगे हुए थे। उनके और कोई दूसरी संतान न थी इस कारण उनकी पत्नी हर समय चिन्तित रहती थी।

अनुकूल बाबू कचहरी से वापस आकर कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनकी पत्नी सन्तानोत्पत्ति के लिए बाज़ारू दवा बेचने वाले से जड़ी-बूटियां ख़रीद रही थी।

काफ़ी दिनों के पश्चात् वह अपने वृध्द नौकर रायचरण को देखकर आश्चर्यचकित हुई, पुरानी सेवाओं का विचार करके उसको रायचरण पर तरस आ गया और उससे पूछा- क्या तुम फिर नौकरी करना चाहते हो?

रायचरण ने मुस्कराकर उत्तर दिया- मैं अपनी मालकिन के चरण छूना चाहता हूं।

अनुकूल बाबू रायचरण की आवाज़ सुनकर कमरे से निकल आये। रायचरण की शक्ल देखकर उनके कलेजे का जख्म ताजा हो गया और उन्होंने मुख फेर लिया।

रायचरण ने अनुकूल बाबू को सम्बोधित करके कहा- सरकार, आपके बच्चे को परयां ने नहीं, बल्कि मैंने चुराया था।

अनुकूल बाबू ने आश्चर्य से कहा- तुम यह क्या कह रहे हो, क्या मेरा बच्‍चा वास्तव में ज़िन्दा है?

उसकी पत्नी ने उछलकर कहा- भगवान के लिए बताओ मेरा बच्‍चा कहां है?

रायचरण ने कहा- आप सन्तोष रखें, आपका बच्‍चा इस समय भी मेरे पास है।

अनुकूल बाबू की पत्नी ने रायचरण से अत्यधिक विनती करते हुए कहा- मुझे बताओ।

रायचरण ने कहा- मैं उसे परसों ले आऊंगा।

3

रविवार का दिन था। जज साहब अपने मकान में बेचैनी से रायचरण की प्रतीक्षा कर रहे थे। कभी वह कमरे में इधर-उधर टहलने लगते और कभी थोड़े समय के लिए आराम-कुर्सी पर बैठ जाते। आखिर दस बजे के लगभग रायचरण ने फलन का हाथ पकड़े हुए कमरे में प्रवेश किया।

अनुकूल बाबू की घरवाली फलन को देखते ही दीवानों की भांति उसकी ओर लपकी और उसे बड़े ज़ोर से गले लगा लिया। उनके नेत्रों से अश्रुओं का समुद्र उमड़ पड़ा। कभी वह उसको प्यार करती, कभी आश्चर्य से उसकी सूरत तकने लग जाती। फलन सुन्दर था और उसके कपड़े भी अच्छे थे। अनुकूल बाबू के हृदय में भी पुत्र-प्रेम का आवेश उत्पन्न हुआ, किन्तु जरा-सी देर के बार उनके पितृ-प्रेम का स्थान क़ानून भावना ने ले लिया और उन्होंने रायचरण से पूछा-भला इसका प्रमाण क्या है कि यह बच्‍चा मेरा है?

रायचरण ने उत्तर दिया- इसका उत्तर मैं क्या दूं सरकार! इस बात का ज्ञान तो परमात्मा के सिवाय और किसी को नहीं हो सकता कि मैंने ही आपका बच्‍चा चुराया था।

जब अनुकूल बाबू ने देखा कि उनकी पत्नी फलन को कलेजे से लगाये हुए है तो प्रमाण मांगना व्यर्थ है। इसके अतिरिक्त उन्हें ध्यान आया कि इस गंवार को ऐसा सुन्दर बच्‍चा कहां मिल सकता था और झूठ बोलने से क्या लाभ हो सकता है।

सहसा उन्हें अपने वृध्द नौकर की बेध्यानी याद आ गई और क़ानूनी मुद्रा में बोले-रायचरण, अब तुम यहां नहीं रह सकते।

रायचरण ने ठंडी उसांस भरकर कहा-सरकार, अब मैं कहां जाऊं। बूढ़ा हो गया हूं, अब मुझे कोई नौकर भी न रखेगा। भगवान के लिए अपने द्वार पर पड़ा रहने दीजिये।

अनुकूल बाबू की पत्नी बोली- रहने दो, हमारा क्या नुकसान है? हमारा बच्‍चा भी इसे देखकर प्रसन्न रहेगा।

किन्तु अनुकूल बाबू की क़ानूनी नस भड़की हुई थी। उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया-नहीं, इसका अपराध बिल्कुल क्षमा नहीं किया जा सकता।

रायचरण ने अनुकूल बाबू के पांव पकड़ते हुए कहा- सरकार, मुझे न निकालिए, मैंने आपका बच्‍चा नहीं चुराया था बल्कि परमात्मा ने चुराया था।

अनुकूल बाबू को गंवार की इस बात पर और भी अधिक क्रोध आ गया। बोले-नहीं, अब मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकता। तुमने मेरे साथ कृतघ्नता की है।

रायचरण ने फिर कहा- सरकार, मेरा कुछ अपराध नहीं।

अनुकूल बाबू त्यौरियों पर बल डालकर कहने लगे- तो फिर किसका अपराध है?

रायचरण ने उत्तर दिया- मेरे भाग्य का।

परन्तु शिक्षित व्यक्ति भाग्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं कर सकता।

फलन को जब मालूम हुआ कि वह वास्तव में एक धनी व्यक्ति का पुत्र है तो उसे भी रायचरण की इस चेष्टा पर क्रोध आया, कि उसने इतने दिनों तक क्यों उसे कष्ट में रखा। फिर रायचरण को देखकर उसे दया भी आ गई और उसने अनुकूल बाबू से कहा- पिताजी, इसको क्षमा कर दीजिए। यदि आप इसको अपने साथ नहीं रखना चाहते तो इसकी थोड़ी पेंशन कर दें।

इतना सुनने के बाद रायचरण अपने बेटे को अन्तिम बार देखकर अनुकूल बाबू की कोठी से निकलकर चुपचाप कहीं चला गया।

महीना समाप्त होने पर अनुकूल बाबू ने रायचरण के गांव कुछ रुपया भेजा किन्तु मनीआर्डर वापस आ गया क्योंकि गांव में अब इस नाम का कोई व्यक्ति न था।

Wednesday, May 6, 2015

भिखारिन

11:30 PM
रवीन्द्रनाथ टैगोर
अन्धी प्रतिदिन मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- ''बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए।''

वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले सहृदय और श्रध्दालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएं देती और उनको सहृदयता को सराहती। स्त्रियां भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।

प्रात: से संध्या तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी याचना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते। 

झोंपड़ी के समीप पहुंचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके मस्तक को चूमती। बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था। पांच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या-समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप कराने का प्रयत्न कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, अत: किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।

अन्धी ने अपनी झोंपड़ी में एक हांडी गाड़ रखी थी। संध्या-समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढांप देती। इसलिए कि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ रहती। प्रात:काल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के द्वार पर जा खड़ी होती।

2
काशी में सेठ बनारसीदास बहुत प्रसिध्द व्यक्ति हैं। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित है। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा हैं। धर्म में उनकी बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे तक सेठ स्नान-ध्यान में संलग्न रहते। कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी तांता बंधा रहता जो अपनी पूंजी सेठजी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा-पूंजी इन्हीं सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किन्तु पता नहीं अब तक वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही।

उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई चुरा न ले। एक दिन संध्या-समय अन्धी ने वह हांडी उखाड़ी और अपने फटे हुए आंचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुंची।

सेठजी बही-खाते के पृष्ठ उलट रहे थे, उन्होंने पूछा- ''क्या है बुढ़िया?''

अंधी ने हांडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा- ''सेठजी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अंधी, अपाहिज कहां रखती फिरूंगी?''

सेठजी ने हांडी की ओर देखकर कहा-''इसमें क्या है?''

अन्धी ने उत्तर दिया- ''भीख मांग-मांगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे संग्रह किये हैं, अपने पास रखते डरती हूं, कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।''

सेठजी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा- ''बही में जमा कर लो।'' फिर बुढ़िया से पूछा-''तेरा नाम क्या है?''

अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीमजी ने नकदी गिनकर उसके नाम से जमा कर ली और वह सेठजी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।

3
दो वर्ष बहुत सुख के साथ बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू की, झाड़-फूंक से भी काम लिया, टोने-टोटके की परीक्षा की, परन्तु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिध्द हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई, अंधी का हृदय टूट गया, साहस ने जवाब दे दिया, निराश हो गई। परन्तु फिर ध्यान आया कि संभवत: डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठजी की कोठी पर आ पहुंची। सेठजी उपस्थित थे।

अंधी ने कहा- ''सेठजी मेरी जमा-पूंजी में से दस-पांच रुपये मुझे मिल जायें तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊंगी।''

सेठजी ने कठोर स्वर में कहा- ''कैसी जमा पूंजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।''

अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया- ''दो वर्ष हुए मैं आपके पास धरोहर रख गई थी। दे दीजिए बड़ी दया होगी।''

सेठजी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा- ''मुनीमजी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूंजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?''

अंधी की जान-में-जान आई, आशा बंधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, किन्तु अब सोचने लगी सम्भवत: उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम बता दिया। उलट-पलटकर देखा। फिर कहा- ''नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।''

अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा- ''सेठजी, परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन-भर आपके गुण गाऊंगी।''

परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठजी ने क्रुध्द होकर उत्तर दिया- ''जाती है या नौकर को बुलाऊं।''

अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठजी की ओर मुंह करके बोली- ''अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे।'' और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

यह अशीष न था बल्कि एक दुखी का शाप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता। एक दिन उसकी अवस्था चिन्ताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठजी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं मांग रही थी, अपने ही रुपये मांगने गई थी। सेठजी से घृणा हो गई।

बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, गिरती-पड़ती, सेठजी के पास पहुंची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।

एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठा देखकर उसने सेठजी को सूचना दी, सेठजी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।

नौकर ने अंधी से चले जाने को कहा, किन्तु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर वह टस-से-मस न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं टलती।

सेठजी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गये। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की, पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जांघ पर एक लाल रंग का चिन्ह था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जांघ देखी। चिन्ह अवश्य था परन्तु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का है। परन्तु तुरन्त उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया। शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और स्वयं मकान के अन्दर चल दिये।

अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी-''मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?''

सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा-''बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था अब मिला है, सो इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊंगा।''

अंधी ने एक जोर का ठहाका लगाया-''तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी।''

सेठजी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते बन नहीं पड़ता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये। अन्धी कुछ समय तक खड़ी रोती रही फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

दूसरे दिन प्रात:काल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने जादू का-सा प्रभाव दिखाया। मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आंख खोली तो सर्वप्रथम शब्द उसकी जबान से निकला, ''मां।''

चहुंओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बन्द कर लिये। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। मां-मां की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठजी के हाथ-पांव फूल गये, चहुंओर अंधेरा दिखाई पड़ने लगा।

''क्या करूं एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है, इसे कैसे बचाऊं?''

सहसा उनको अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परन्तु वह वहां कहां? सेठजी ने फिटन तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुंचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधर बह रही है। सेठजी ने धीरे से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भांति तप रहा था।

सेठजी ने कहा- ''बुढ़िया! तेरा बच्च मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे...नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।''

अन्धी ने उत्तर दिया- ''मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूं। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर मां-बेटे की तरह मिल जाएंगे। इस लोक में सुख नहीं है, वहां मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी सुचारू रूप से सेवा-सुश्रूषा करूंगी।''

सेठजी रो दिये। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था। किन्तु इस समय अन्धी के पांवों पर गिर पड़े और रो-रोकर कहा- ''ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी मां हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा।''

ममता शब्द ने अन्धी को विकल कर दिया। उसने तुरन्त कहा- ''अच्छा चलो।''

सेठजी सहारा देकर उसे बाहर लाये और फिटन पर बिठा दिया। फिटन घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठजी और अन्धी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुंच जायें।

कोठी आ गई, सेठजी ने सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर जाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी मां का हाथ है। उसने तुरन्त नेत्र खोल दिये और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा- ''मां, तुम आ गईं।''

अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपने गोद में रख लिया। उसको बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सो गया।
दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुड़िया और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।

मोहन के पूरी तरह स्वथ हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत-कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए परन्तु वह सहमत न हुई, विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने मालूम किया, ''इसमें क्या है।''

सेठजी ने कहा-''इसमें तुम्हारे धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध''

अन्धी ने बात काट कर कहा-''यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए संग्रह किये थे, उसी को दे देना।''

अन्धी ने थैली वहीं छोड़ दी। और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाये उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे किन्तु वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

सरदार जी

3:59 AM
ख्वाजा अहमद अब्बास
लोग समझते हैं सरदार जी मर गये। नहीं यह मेरी मौत थी। पुराने मैं की मौत। मेरे तअस्सुब (धर्मान्धता) की मौत। घृणा की मौत जो मेरे दिल में थी।

मेरी यह मौत कैसे हुई, यह बताने के लिए मुझे अपने पुराने मुर्दा मैं को जिन्दा करना पड़ेगा।

मेरा नाम शेख बुराहानुद्दीन है।

जब दिल्ली और नई दिल्ली में साम्प्रदायिक हत्याओं और लूट-मार का बांजार गर्म था और मुसलमानों का खून सस्ता हो गया था, तो मैंने सोचा ...वाह री किस्मत! पड़ोसी भी मिला तो सिख।...जो पड़ोसी का फंर्ज निभाना या जान बचाना तो क्या, न जाने कब कृपाण झोंक दे !

बात यह है कि उस वक्त तक मैं सिखों पर हंसता भी था। उनसे डरता भी था और काफी नफरत भी करता था। आज से नहीं, बचपन से ही । मैं शायद छह साल का था, जब मैंने पहली बार किसी सिख को देखा था। जो धूप में बैठा अपने बालों को कंघी कर रहा था। मैं चिल्ला पड़ा, 'अरे वह देखो, औरत के मुंह पर कितनी लम्बी दाढ़ी!'

जैसे-जैसे उम्र गुजरती गयी, मेरी यह हैरानी एक नस्ली नंफरत में बदलती गयी।

घर की बड़ी बूढ़ियां जब किसी बच्चे के बारे में अशुभ बात का जिक्र करतीं जैसे यह कि उसे नमूनिया हो गया था उसकी टांग टूट गयी थी तो कहतीं, अब से दूर किसी सिख फिरंगी को नमूनिया हो गया था या अब से दूर किसी सिख फिरंगी की टांग टूट गयी थी। 

बाद में मालूम हुआ कि यह कोसना सन् 1857 की यादगार था जब हिन्दू-मुसलमानों के स्वतंत्रता युध्द को दबाने में पंजाब के सिख राजाओं और उनकी फौजों ने फिरंगियों का साथ दिया था। मगर उस वक्त ऐतिहासिक सच्चाइयों पर नंजर नहीं थी, सिर्फ एक अस्पष्ट सा खौंफ, एक अजीब सी नंफरत और एक गहरी धर्मान्धता। डर तो अंग्रेंज से भी लगता था और सिख से भी। मगर अंग्रेंज से ज्यादा। उदाहरणत: जब मैं कोई दस वर्ष का था एक रोज दिल्ली से अलीगढ़ जा रहा था। हमेशा थर्ड या इंटर में संफर करता था। सोचा कि अबकी बार सैकेंड में सफर करके देखा जाए। टिकट खरीद लिया और एक खाली डिब्बे में बैठकर गद्दों पर खूब कूदा। बाथरूम के आईने में उचक-उचक कर अपना प्रतिबिम्ब देखा। सब पंखों को एक साथ चला दिया। रोशनियों को भी जलाया कभी बुझाया। मगर अभी गाड़ी चलने में दो-तीन मिनट बाकी थे कि लाल-लाल मुंह वाले चार फौजी गोरे आपस में डेम ब्लडी किस्म की बातचीत करते हुए दर्जे में घुस आये। उनको देखना था कि सैकेंड क्लास में सफर करने का मेरा शौक रफू-चक्कर हो गया और अपना सूटकेस घसीटता हुआ मैं भागा और एक अत्यन्त खचाखच भरे हुए थर्ड क्लास के डिब्बे में आकर दम लिया। यहां देखा तो कई सिख, दाढ़ियां खोले, कच्छे पहने बैठे थे मगर मैं उनसे डर कर दर्जा छोड़ कर नहीं भागा सिर्फ उनसे जरा फासले पर बैठ गया।

हां, डर सिखों से भी लगता था मगर अंग्रेंजों से उनसे ज्यादा। मगर अंग्रेज़ अंग्रेंज थे। वे कोट-पतलून पहनते थे, तो मैं भी पहनना चाहता था। वे 'डैम...ब्लडी फूल' वाली जबान बोलते थे, जो मैं भी सीखना चाहता था। इसके अलावा वे हाकिम थे और मैं भी कोई छोटा-मोटा हाकिम बनना चाहता था। वे छुरे-कांटे से खाते थे, मैं भी छुरी-कांटे से भोजन करना चाहता था ताकि दुनिया मुझे सुसंस्कृत समझे।

उन दिनों मुझे काल और ऐतिहासिक सच्चाइयों की समझ नहीं थी। मन में मात्र एक अस्पष्ट-सा भय था। एक विचित्र-सी घृणा और धर्मान्धता थी। डर अंग्रेंजों से भी लगता था और सिखों से भी, पर अंग्रेजों से ज्यादा लगता था।

मगर सिखों से जो डर लगता था, उसमें नंफरत घुल-मिल गयी थी। कितने अजीब अजीब थे ये सिख, जो मर्द होकर भी सिर के बाल औरतों की तरह लम्बे-लम्बे रखते थे! यह और बात है कि अंग्रेज फैशन की नकल के सिर के बाल मुंड़ाना मुझे भी पन्सद नहीं था। अब्बा के इस हुक्म के बावजूद कि हर जुम्मा को सिर के बाल खशखशी कराए जाएं, मैंने बाल खूब बढ़ा रखे थे ताकि हॉकी और फुटबाल खेलते वक्त बाल हवा में उडें ज़ैसे अंग्रेज खिलाड़ियों के। अब्बा कहते यह क्या औरतों की तरह पट्टे बढ़ा रखे हैं। मगर अब्बा तो थे ही पुराने विचारों के। उनकी बात कौन सुनता था। उनका बस चलता तो सिर पर उस्तरा चलवाकर बचपन में ही हमारे चेहरों पर दाढ़ियां बंधवा देते। 

हां, इस पर याद आया कि सिखों के अजीब होने की दूसरी निशानी उनकी दाढ़ियां थीं और फिर दाढ़ी-दाढ़ी में भी फंर्क होता है। मसलन अब्बा की दाढ़ी जिसे बड़े ढंग से नाई फ्रेंच-कट बनाया करता था। या ताऊजी की दाढ़ी, जो नुकीली और चोंचदार थी मगर वह भी क्या दाढ़ी हुई जिसे कभी कैंची ही न लगे और झाड़-झ्रखाड़ की तरह बढ़ती रहे...उल्टा तेल, दही और जाने क्या-क्या मलकर बढ़ाई जाए, और जब खूब लम्बी हो जाए तो उसमें कंघी की जाए, जैसे औरतें सिर के बालों में करती हैं, औरतों या फिर मेरे जैसे स्कूल के फैशनपरस्त लड़के। इसके अलावा मेरे दादा हजूर की दाढ़ी भी लम्बी थी और वह भी उसमें कंघी करते थे, लेकिन उनकी तो बात ही कुछ और थी, आखिर वे मेरे दादा जान ठहरे, और सिख तो फिर सिख थे।

मैट्रिक पास करने के बाद मुझे पढ़ने-लिखने के लिए मुस्लिम विश्वविद्यालय भेजा गया। कॉलेज में जो पंजाबी लड़के पढ़ते थे, उन्हें हम दिल्ली और उत्तर प्रदेश वाले...मूर्ख, गंवार तथा उजड्ड समझते थे। न बात करने का सलीका, न खान-पीने की तमीज। तहजीब तो छू तक नहीं गयी थी उन्हें। ये बड़े-बड़े लस्सी के गिलास छकने वाले भला क्या जानें केवडेदार फालूदे और लिपटन की चाय का आनन्द! जबान बड़ी बेहूदा। बात करें तो लगे लट्ठ मार रहे हैं...असी, तुसी, साडे, तुहाडे...लाहौल विलाकूवत ! मैं तो उन पंजाबियों से सदा कतराता रहता था। मगर, खुदा भला करे हमारे वार्डन का कि उन्होंने एक पंजाबी को मेरे कमरे जगह दे दी। मैंने सोचा चलो, जब साथ रहना ही है तो थोड़ी-बहुत दोस्ती ही कर ली जाएे।

कुछ ही दिनों में हमारी गाढ़ी छनने लगी। उसका नाम गुलाम रसूल था। रावलपिंडी का रहने वाला था। काफी मंजेदार आदमी थी। लतींफे खूब सुनाता था।

आप कहेंगे, बात चल रही थी सरदार जी की...यह गुलाम रसूल कहां से टपक पड़ा! मगर दरअसल, उसका इस किस्से से गहरा नाता है। बात यह है कि वह जो लतीफे सुनाता था, वे प्राय: सिखों के बारे में ही होते थे। जिनको सुन-सुनकर मुझे पूरी सिख कौम की आदतें, उनके लस्ली गुणों और सामूहिक चरित्र का पूरी तरह ज्ञान हो गया था। गुलाम रसूल का कहना था कि तमाम सिख बेवकूफ और बुद्धू होते हैं। बारह बजे तो उनकी अक्ल बिलकुल खब्त हो जाती है। इसके सबूत में कितनी ही घटनाएं पेश की जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर एक सरदार जी दिन के बारह बजे साईकिल पर सवार अमृतसर के हाल बांजार से गुजर रहे थे। चोराहे पर एक सिख सिपाही ने रोका और पूछा, ''तुम्हारी साइकिल की लाईट कहां है?'' साइकिल सवार सरदार जी गिड़गिडा कर बोले, ''जमादार साहब अभी-अभी बुझ गयी है, घर से जला कर चला था।'' इस पर सिपाही ने चालान काटने की धमकी दी। एक राह चलते सफेद दाढ़ी वाले सरदार जी ने बीच-बचाव कराया''चलो भाई कोई बात नहीं। लाईट बुझ गयी है तो अब जला लो।'' और इसी तरह के सैकड़ों लतीफे उसे याद थे, जिन्हें वह पंजाबी संवादों के साथ सुनाता था तो सुनने वालों के पेट में बल पड़ जाते थे। वास्तव में उन्हें सुनने का मजा पंजाबी में ही आता था। क्योंकि उजड्ड सिखों की अजीब-ओ-गरीब हरकतों के बयान करने का हक कुछ पंजाबी जैसी उजड्ड जबान में ही हो सकता था।

सिख न केवल बेवकूफ और बुद्धू थे बल्कि गन्दे थे जैसा कि एक सबूत गुलाम रसूल यह देता था कि वे बाल नहीं मुंडवाते थे। इसके विपरीत हम साफ-सुथरे गांजी मुसलमान हैं जो हर आठवारे जुमे के जुमे गुसल करते हैं। सिख लोग तो कच्छा पहने सबके सामने, नल के नीचे बैठकर नहाते जो रोज हैं लेकिन बालों और दाढ़ी में न जाने कैसे गन्दी ओर गिलीज चीजें मलते रहते हैं। वैसे मैं भी सिर पर एक हद तक गाढ़े दूध जैसी 'लैमन-जूस ग्लैसरीन' लगाता हूं लेकिन वह विलायत के मशहूर सुगन्धी कारंखाने से आती है, मगर दही किसी गन्दे-सादे हलवाई की दुकान से।

खैर जी, हमें दूसरों के रहन-सहन वगैरह से क्या लेना-देना। पर सिखों का एक सबसे बड़ा दोष यह था कि उनमें अक्खड़ता, बदतमींजी और मारधाड़ में मुसलमानों का मुकाबला करने का हौसला था। अब देखो न, दुनिया चाहती है कि एक अकेला मुसलमान दस हिन्दुओं या सिखों पर भारी पड़ता है। फिर ये सिख क्यों मुसलमानों का रौब नहीं मानते? कृपाण लटकाये अकड़-अकड़कर मूंछों बल्कि दाढ़ी पर भी ताव देते हुए चलते थे। गुलाम रसूल कहता, ''इनकी हेकड़ी एक दिन हम ऐसी निकालेंगे कि खालसा जी याद ही करेंगे!

कॉलेज छोड़े कई साल गुजर गये।

विद्यार्थी से मैं पहले क्लर्क बन गया और फिर हैडक्लर्क। अलीगढ़ का छात्रावास छोड़कर नई दिल्ली के एक सरकारी मकान में रहने लगा। शादी हो गयी, बच्चे हो गये। उन दिनों एक सरदार जी मेरे पड़ोस में आबाद हुए तो मुद्दतों के बाद सहसा मुझे गुलाम रसूल का कथन याद आ गया।

यह सरदार जी रावलपिंडी से तबादला करवाकर आये थे, क्योंकि रावलपिंडी जिला में गुलाम रसूल की भविष्यवाणी के मुताबिक सरदारों की हेकड़ी अच्छी तरह तरह निकाली गयी थी। गांजियों ने उनका सफाया कर दिया था। बड़े सूरमा बनते थे। कृपाणें लिये फिरते थे। बहादुर मुसलमानों के आगे उनकी एक न चली। उनकी दाढ़ियां मूंडक़र उन्हें मुसलमान बनाया गया था। जबरदस्ती उनका खतना किया गया था। हिन्दू अखबार हमेशा की तरह मुसलमानों को बदनाम करने के लिए लिख रहे थे कि मुसलमानों ने सिख औरतों, बच्चों का कत्ल किया है। हालांकि यह कार्य इस्लामी परंपरा के खिलांफ है। कोई मुसलमान मुजाहद कभी औरत या बच्चे पर हाथ नहीं उठाया। हो न हो, अंखबारों में औरतों और बच्चों की लाशों के चित्र जो छापे जा रहे थे, वे या तो जाली थे, या सिखों ने मुसलमानों को बदनाम करने के वास्ते खुद अपनी औरतों और बच्चों का कत्ल किया होगा। रावलपिंडी और पश्चिमी पंजाब के मुसलमानों असलियत सिर्फ इतनी है कि मुसलमानों की बहादुरी की धाक बैठी है और अगर नौजवान मुसलमानों पर हिन्दू और सिख लड़कियां खुद लट्टू हो जाएं तो उनका क्या कसूर हैयदि वे इस्लाम के प्रचार के सिलसिले में इन लड़कियों को शरण में ले लें।

हां, तो सिखों की कोरी बहादुरी का भांडा फूट गया था। भला अब तो मास्टर तारा सिंह लाहौर में कृपाण निकालकर मुसलमानों को धमकी दे।

रावलपिंडी से भागे हुए उस सरदार और उसकी कंगाली देखकर मेरा सीना इस्लाम की महानता की रूह (आत्मा) से भर गया।

हमारे पड़ोसी सरदार जी की उम्र कोई साठ साल की होगी। दाढ़ी बिलकुल सफेद हो चुकी थी। हालांकि मौत के मुंह से बच कर आये थे, लेकिन हजरत चौबीस घंटे दांत निकाले हंसते रहते। इसी से प्रकट होता था कि वे दरअसल, कितने मूर्ख और भावहीन हैं।

शुरू-शुरू में उन्होंने मुझे अपनी दोस्ती के जाल में फंसाना चाहा। आते-जाते जबरदस्ती बातें करने लगते। उस दिन न जाने उनका कौन-सा त्यौहार था। उन्होंने हमारे यहां कड़ा प्रसाद की मिठाई भेजी (जो मेरी बेंगम ने तुरन्त भंगन को दे दी) पर मैंने ज्यादा मुंह नहीं लगाया। कोई बात हुई, सूखा-सा जवाब दे दिया बस। मैं जनता था कि सीधे मुंह दो-चार बातें करली तो यह पीछे ही पड़ जाएगा। आज बातें तो कल गाली-गलौज। गालियां तो आप जानते ही हैं सिखों की दाल-रोटी होती हैं, कौन अपनी जबान गन्दी करे, ऐसे लोगों से सम्बन्ध बढ़ाकर।

एक इतवार की दोपहर को मैं बैठा बेंगम को सिखों की मूर्खताओं के लतींफे सुना रहा था। उनकी आंखों देखी तसदीक करने के लिए ठीक बारह बजे मैंने अपने नौकर को सरदार जी के घर भेजा कि उनसे पूछ कर आये कि क्या बजा है? उन्होंने कहला भेजा कि बारह बजकर दो मिनट हुए हैं। मैंने कहा, ''बारह बजे का नाम लेते हुए घबराते है!'' और हम खूब हंसे।

इसके बाद भी मैंने कई बार मूर्ख बनाने के लिए सरदार जी से पूछा, ''क्यों सरदार जी, बारह बज गये?''

और वे बेशर्मी से दांत फाड़ कर जवाब देते

''जी असां तो चौबीस घंटे बारह बजे रहते हैं!'' और यह कहकर वे खूब हंसे, मानो यह बढ़िया मंजांक हुआ।

मुझे सबसे ज्यादा डर बच्चों की तरफ से था। अव्वल तो किसी सिख का विश्वास नहीं कि कब किसी बच्चे के गले पर कृपाण चला दे, फिर ये लोग रावलपिंडी से आये थे | जरूर दिल में मुसलमानों से बैर रखते होंगे और बदला लेने की ताक में होंगे। मैंने बेंगम को ताकीद कर दी बच्चे हरगिज सरदार जी के मकान की तरफ न जाने दिये जाएं।

मगर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। कुछ दिन बाद मैंने देखा कि वे सरदार जी की छोटी बेटी मोहनी और उनके पोतों के संग खेल-कूद रहे है। वह बच्ची, जिसकी उम्र मुश्किल से दस साल की होगी, सचमुच मोहिनी ही थी। गोरी-चिट्टी, तीखे नैन-नक्श...बेहद सुन्दर।

इन कम्बंख्तों की औरतें काफी सुन्दर होती हैं। मुझे याद आया...गुलाम रसूल कहा करता था कि अगर पंजाब से सिख मर्द चले जाएं और औरतों को छोड़ जाएं तो फिर हूरों की तलाश में भटकने की जरूरत नहीं !...हां, तो जब मैंने अपने बच्चों को उनके साथ खेलते देखा, तो मैं उनको घसीटता हुआ घर के अन्दर ले आया और खूब पिटाई की। फिर मेरे सामने कम-से-कम उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वे कभी उधर का रुख करें।

बहुत जल्द सिखों की असलियत पूरी तरह जाहिर हो गयी। रावलपिंडी से तो वह कायरों की तरह पिटकर आये थे, लेकिन पूर्वी पंजाब में मुसलमानों को अल्प संख्या में पाकर उन पर अत्याचार ढाना शुरू कर दिया। हजारों बल्कि लाखों मुसलमानों को शहीद होना पड़ा। इस्लामी खून की नदियां बह गयी। हजारों औरतों को नंगा करके जुलूस निकाला गया। जब से पश्चिमी पाकिस्तान से भागे हुए सिख इतनी बड़ी तादाद में दिल्ली आने शुरू हुए थे इस महामारी का यहां तक पहुंचना यकीनी हो गया था। मेरे पाकिस्तान जाने में अभी कुछ हफ्तों की देर थी इसलिए मैंने अपने बीवी-बच्चों को तो बड़े भाई के साथ हवाई जहाज से कराची भेज दिया और खुद, खुदा का भरोसा करके यहीं ठहरा रहा। हवाई जहांज में सामान चूंकि ज्यादा नहीं जा सकता था, इसलिए मैंने पूरी एक वैगन बुक करवा ली। मगर जिस दिन मैं सामान भेजने वाला था, उस दिन सुना कि पाकिस्तान जाने वाली गाड़ियों पर हमले जा रहे हैं, इसलिए सामान घर में ही पड़ा रहा।

पन्द्रह अगस्त को आंजादी का जश्न मनाया गया, पर मुझे इस आजादी से भला क्या दिलचस्पी थी! मैंने छुट्टी मनायी और दिनभर लेटा-लेटा 'डॉन' तथा 'पाकिस्तान टाइम्स' पढ़ता रहा। दोनों अंखबारों में इस घोषित आंजादी के परखचे उड़ाये गये थे...और सिध्द किया गया था कि किस प्रकार हिन्दुओं और अंग्रेजों ने मुसलमानों का बीज नाश करने की साजिश की थी। यह तो हमारे कायदेआंजम का ही चमत्कार था, कि पाकिस्तान लेकर ही रहे। फिर भी अंग्रेजों ने सिखों के दबाव में आकर अमृतसर जो है, हिन्दुस्तान को दे दिया। वरना सारी दुनिया जानती है कि अमृतसर शुध्द इस्लामी शहर है...और यहां की सुनहरी मस्जिद संसार में 'गोल्डन मॉस्क' के नाम से मशहूर है...नहीं-नहीं, वह तो गुरुद्वारा है और 'गोल्डन टेंपल' कहलाता है। सुनहरी मस्जिद तो दिल्ली में है। सुनहरी मस्जिद ही नहीं जामा मस्जिद, लाल-किला भी। निजामुद्दीन औलिया का मजार, हुमायूं का मकबरा, सफदरजंग का मदरसा...यानी चप्पे-चप्पे पर इस्लामी हुकूमत के निशान जाते हैं। फिर भी आज इसी दिल्ली बल्कि कहना चाहिए कि शाहजहांनाबाद पर हिन्दू साम्राज्य का झंडा फहराया जा रहा था! सोचकर मेरा दिल भर आया कि दिल्ली जो कभी मुसलमानों की राजधानी थी, सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी, हमसे छीन ली गयी और हमें पश्चिमी पंजाब और सिन्ध, बलोचिस्तान वगैरह जैसे उजड्ड और गंवारू इलाकों में जबरदस्ती भेजा जा रहा था, जहां किसी को साफ-सुथरी उर्दू बोलनी भी नहीं आती। जहां सलवारों जैसा जोकराना लिबास पहना जाता है। जहां हल्की-फुल्की पाव भर में बीस चपातियों की बजाय दो-दो सेर की नानें खायी जाती हैं।

फिर मैंने दिल को मंजबूत करके कि कायदेआजम और पाकिस्तान की खातिर यह कुर्बानी तो हमें देनी होगी मगर फिर भी दिल्ली छोड़ने के खयाल से दिल मुर्झाया ही रहा...शाम को जब मैं बाहर निकला और सरदार जी ने दांत निकालकर कहा''क्यों बाबू जी! तुमने खुशी नहीं मनायी?'' तो मेरे जी में आयी कि उसकी दाढ़ी को आग लगा दूं। हिन्दुस्तान की आजादी और दिल्ली में सिख शाही आंखिर रंग लाकर ही रही। अब पश्चिमी पंजाब से आये हुए रिफ्यूजियों की संख्या हंजारों से लाखों तक पहुंच गयी। ये लोग असल में पाकिस्तान बदनाम करने के लिए अपने घर-बार छोड़ वहां से भागे थे। यहां आकर गली-कूचे में अपना रोना रोते फिरते हैं। कांग्रेसी प्रोपेंगडा मुसलमानों के विरुध्द जोरों से चल रहा है और इस बार कांग्रेसियों ने चाल यह चली कि बजाए कांग्रेस का नाम लेने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और शहीदी दल के नाम से काम कर रहे थे हालांकि दुनिया जानती है कि ये हिन्दू चाहे कांग्रेसी हों या महासभाई सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चाहे दुनिया को दिखाने की खातिर वे बाह्य रूप से गांधी और जवाहरलाल नेहरू को गालियां ही क्यों न देते हों।

एक दिन सुबह खबर मिली कि दिल्ली में कत्लेआम शुरू हो गया है। करोलबाग में मुसलमानों के सैकड़ों घर जला दिए गये...चांदनी चौक के मुसलमानों की दूकानें लूट ली गयीं और हंजारों का सफाया हो गया!

खैर, मैंने सोचा नई दिल्ली तो एक अरसे से अंग्रेजों का शहर रहा है। लार्ड माउंटबेटन यहां रहते हैं। कम-से-कम यहां तो वे मुसलमानों पर ऐसा अत्याचार नहीं होने देंगे।

यह सोच कर मैं दफ्तर की तरफ चल पड़ा, क्योंकि उस दिन मुझे अपने प्रॉवीडेंट फंड का हिसाब करना था। असल में इसलिए ही मैंने पाकिस्तान जाने में देर कर दी थी। अभी मैं गोल मार्केट तक ही पहुंचा था कि दफ्तर का एक हिन्दू बाबू मिला। उसने कहा, ''कहां चले जा रहे हो? जाओ वापस जाओ, बाहर न निकलना। कनॉट प्लेस में बलवाई मुसलमानों को मार रहे हैं।

मैं वापस भाग आया।

अपने स्क्वेयर में पहुंचा ही था कि सरदार जी से मुठभेड़ हो गयी। कहने लगे, ''शेख जी, ंफिक्र न करना। जब तक हम सलामत हैं, तुम्हें कोई हाथ नहीं लगा सकता।''

मैंने सोचा कि इसकी दाढ़ी के पीछे कितना कपट छुपा हुआ है। दिल में तो...खुश है कि चलो अच्छा हुआ मुसलमानों का सफाया हो रहा हैमगर जबानी हमदर्दी जताकर मुझ पर एहसान कर रहा है क्योंकि सारे स्क्वेयर में बल्कि तमाम सड़क पर मैं अकेला मुसलमान था। मुझे इन काफिरों की सहानुभूति या दया नहीं चाहिए! मैं अपने क्वार्टर में आ गया कि मैं मारा भी जाऊं तो दस-बीस को मार कर। सीधा अपने कमरे में गया, जहां पलंग के नीचे मेरी शिकारी दोनाली बन्दूक रखी थी। जब से दंगे शुरू हुए थे मैंने कारतूस और गोलियों का जखीरा जमा कर रखा था। पर वहां बन्दूक न मिली। सारा घर छान मारा। उसका कहीं पता न चला।

''क्यों हुंजूर, क्या ढूंढ रहे हैं आप?'' यह मेरा वफादार नौकर मम्दू था।

''मेरी बन्दूक कहां गयी?'' मैंने पूछा, उसने कोई जवाब न दिया मगर उसके चेहरे से साफ जाहिर था कि उसे मालूम है। शायद उसने छुपायी है या चुरायी है।

''बोलता क्यों नहीं?'' मैंने डपट कर कहा तब असलियत मालूम हुई कि मम्दू ने मेरी बन्दूक चुराकर अपने दोस्तों को दे दी है, जो दरियागंज में मुसलमानों की हिफाजत के लिए हथियार जमा कर रहे थे। वह भी बड़े जोश में था, ''सरकार, सैकड़ों बन्दूकें हैं हमारे पास। सात मशीनगनें, दस पिस्तौल और एक तोप। हम काफिरों को भूनकर रख देंगे, भूनकर !''

मैंने कहा, ''मेरी बन्दूक से दरियागंज से काफिरों को भून दिया गया तो इससे मेरी हिफाजत कैसे होगी? मैं तो यहां निहत्था काफिरों के चंगुल में फंसा हुआ हूं। यहां मुझे भून दिया गया तो कौन जिम्मेदार होगा?'' मैंने मम्दू से कहा कि जैसे भी हो, वह छुपता-छुपाता दरियागंज जाए और मेरी बन्दूक तथा सौ-दो सौ कारतूस भी ले आये। वह चला तो गया, लेकिन मुझे विश्वास था कि अब वह लौटकर नहीं आयेगा।

अब मैं घर में बिलकुल अकेला रह गया था। सामने कारनिस पर मेरे बीवी-बच्चों की तस्वीरें चुपचाप मुझे घूर रही थीं। यह सोचकर मेरी आंखों में आंसू आ गये कि अब उनसे मुलाकत होगी भी या नहीं, मेरी आंखें भर आयीं। मगर फिर इस खयाल से कुछ सन्तुष्टि भी हुई कि कम-से-कम वे तो सकुशल पाकिस्तान पहुंच गये हैं। काश, मैंने प्रॉवीडेंट फंड का लालच न किया होता!

''सतसिरी अकाल?'' हरहर महादेव !'' दूर से आवांजें करीब आ रही थीं। ये दंगाई थे। ये मेरी मौत के दूत थे। मैंने जंख्मी हिरन की तरह इधर-उधर देखा जो गोली खा चुका हो और जिसके पीछे शिकारी कुत्ते लगे हों...बचाव की कोई सूरत न थी। क्वार्टर के किवाड़ पतली लकड़ी के थे और उनमें शीशे लगे हुए थे। मैं अन्दर बन्द होकर बैठा भी रहा, तो भी बलवाई दो मिनट में किवाड़ तोड़कर अन्दर आ सकतेथे।

''सतसिरी अकाल!''

''हरहर महादेव!''

आवांजें और निकट आ रही थीं, मेरी मौत निकट आ रही थी।

इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई। सरदार जी दाखिल हुए।

''शेख जी, तुम हमारे क्र्वाटर में आ जाओ...जल्दी करो''...बिना सोचे-समझे अगले क्षण मैं सरदार जी के बरामदे की चिकों के पीछे था। मौत की गोली सन से मेरे सिर पर से गुजर गयी, क्योंकि मैं वहां दांखिल हुआ ही था कि एक लारी आकर रुकी और उसमें दस-पन्द्रह युवक उतरे। उनके अगुआ के हाथ में एक सूची थी।

''मकान नं 8 शेख बुरहानुद्दीन। ?'' उसने कागज पर नंजर डालते हुए हुक्म दिया और पूरा दल टूट पड़ा। मेरी गृहस्थी की दुनिया मेरी आंखों के सामने उजड़ गयी। कुर्सियां, मेजें, सन्दूक, तस्वीरें, किताबें, दरियाँ, कालीन यहाँ तक कि मैले कपड़ेहर चीज़ लारी में पहुंचा दी गयी।

डाकू!  लुटेरे!! कज्जाक!!!

और यह सरदार जी, जो मुँह की हमदर्दी जताकर मुझे यहां ले आये, यह कौन-सा कम लुटेरे हैं! वे बाहर जाकर बलवाइयों से बोलें, ''ठहरिए साहब, इस घर पर हमारा हक है। हमें भी लूट का हिस्सा मिलना चाहिए।'' यह कहकर उन्होंने अपने बेटे और बेटी को इशारा किया, और वे भी लूट में शामिल हो गये। कोई मेरी पतलून उठाये चला आ रहा था, कोई सूटकेस और कोई मेरे बीवी-बच्चों की तस्वीरें ला रहा था। लूट का यह सारा माल सीधा अन्दर वाले कमरे में पहुंचाया जा रहा था।

अच्छा रे सरदार! जिन्दा रहा तो तुझसे भी निपट लूंगा।...मगर उस वक्त तो मैं चूँ भी नहीं कर सकता था। क्योंकि दंगाई जो सब के सब हथियारबन्द थे मुझसे कुछ ही गज के फासले पर जमा थे। उन्हें मालूम हो गया कि मैं यहाँ हूं तो...

''अरे अन्दर जाओ तुसी...'' सहसा मैंने देखा कि सरदार जी हाथ में नंगी कृपाण लिये मुझे भीतर बुला रहे हैं। मैंने एकबारगी उस दढ़ियल चेहरे को देखा, जो लूटमार की भाग-दौड़ से और भी डरावना हो गया था...और फिर कृपाण को, जिसकी चमकीली धार मुझे मौत की दावत दे रही थी। बहस करने का मौका नहीं था। अगर मैं जरा भी बोला और बलवाइयों ने सुन लिया, तो अगले ही पल गोली मेरे सीने से पार होगी। कृपाण और बन्दूक वाले कई बलवाइयों से कृपाण वाला बुङ्ढा बेहतर है। मैं कमरे में चला गया, झिझकता हुआ चुपचाप।

''यहाँ नहीं जी, अन्दर आओ।''

मैं और अन्दर कमरे में चला गया, जैसे बकरा कसाई के साथ बलि की वेदी में दाखिल होता है। मेरी आँखें कृपाण की धार से चौंधियायी जा रही थीं।

''यह लो जी, अपनी चीजें सम्भाल लो।'' कहकर सरदार जी ने वह सारा सामान मेरे सामने रख दिया, जो उन्होंने और उनके बच्चों ने झूठमूठ की लूट में हासिल किया था।

सरदारनी बोली, ''बेटा अंफसोस है कि हम तेरा कुछ भी सामान नहीं बचा सके।''

मैं कोई जवाब न दे सका।

इतने में बाहर से कुछ शोर-शराबा सुनाई दिया। बलवाई मेरी लोहे की अलमारी निकालकर उसे तोड़ने की कोशिश कर रहे थे। ''इसकी चाबियाँ मिल जातीं तो मामला आसान हो जाता।''

''चाबियाँ तो इसकी अब पाकिस्तान में मिलेंगी। भाग गया न डरपोक ! मुसलमान का बच्चा था तो मुकाबला करता।''

नन्हीं मोहनी मेरी बीवी की कुछ रेशमी कमीजें और गरारे न जाने किससे छीन कर ला रही थी। उसने बलवाइयों की बात सुनी तो बोली, ''तुम बड़े बहादुर हो, शेखजी डरपोक क्यों होने लगे...वह तो कोई भी पाकिस्तान नहीं गये।''

''नहीं गया तो यहाँ से कहाँ मुंह काला कर गया?''

''मुंह काला क्यों करते! वह तो हमारे घर...

मेरे दिल की धड़कन पल भर के लिए बन्द हो गयी। बच्ची अपनी गलती महसूस करते ही खामोश हो गयी। मगर बलवाइयों के लिए यही काफी था।

सरदार जी के सिर पर जैसे खून सवार हो गया। उन्होंने मुझे अन्दर बन्द करके दरवाजे को कुंडी लगा दी। अपने बेटे के हाथ कृपाण थमायी और खुद बाहर निकल आये।

बाहर क्या हुआ मुझे ठीक से पता नहीं चला।

थप्पड़ों की आवांज...फिर मोहनी के रोने की आवांज और उसके बाद सरदार जी की आवांज, पंजाबी गालियाँ! कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि किसे गालियाँ दे रहे हैं और क्यों दे रहे हैं। मैं चारों तरफ से बन्द था। इसलिए ठीक सुनाई न दिया।

और फिर...गोली की आवांज...सरदार जी की चीख...लारी चालू होने की गड़गड़ाहट...और फिर सारी स्क्वेयर पर सन्नाटा छा गया। जब मुझे कमरे की कैद से निकाला गया तो सरदार जी पलंग पर पड़े थे, और उनके सीने के निकट सफेद कमीज छाती पर खून से लाल हो रही थी। उसका बेटा पड़ोसी के घर से डॉक्टर को फोन कर रहा था।

''सरदार जी ! यह तुमने क्या किया?'' मेरी जबान से न जाने ये शब्द कैसे निकले। हैरान था। मेरी बरसों की दुनिया, विचारों, मान्यताओं, संस्कारों और धार्मिक भावनाओं का संसार ध्वस्त हो गया था। ''सरदार जी, यह तुमने क्या किया?''

''मुझे कर्जा उतारना था, बेटा।''

''कर्जा?''

''हाँ, रावलपिंडी में तुम्हारे जैसे ही एक मुसलमान ने अपनी जान देकर मेरी और मेरे परिवार की इज्जत बचायी थी।''

''उसका नाम क्या था सरदार जी?''

''गुलाम रसूल।''

''गुलाम रसूल!''...और मुझे ऐसा लगा मानो किस्मत ने मेरे साथ धोखा किया है। दीवार पर लटके घंटे ने बाहर बजाने शुरू कर दिये...एक...दो...तीन...चार...पाँच...

सरदार जी की निगाहें घंटे की तरफ घूम गयीं...जैसे मुस्करा रहे हों और मुझे अपने दादा हुजूर याद आ गये, जिनकी कई फुट लम्बी दाढ़ी थी...सरदार जी की शक्ल उनसे कितनी मिलती-जुलती थी!...छह...सात...आठ...नौ...

मानो वे हँस रहे हों...उनकी सफेद दाढ़ी और सिर के खुले बालों ने उनके चेहरे के गिर्द एक प्रभामंडल-सा बनाया हुआ था।

...दस...ग्यारह...बारह...जैसे वे कह रहे हो, ''जी, असाँ दे तो चौबीस घंटे बारह बजे रहते हैं।''

फिर वे निगाहें हमेशा के लिए बन्द हो गयी!...और मेरे कानों में गुलाम रसूल की आवांज दूर...बहुत दूर से आयी...''मैं कहता था न कि बारह बजे इन सिखों की अक्ल मारी जाती है...और ये कोई न कोई बेवकूंफी कर बैठते है।...अब इन सरदार जी को ही देखो...एक मुसलमान की खातिर अपनी जान दे दी!''

पर ये सरदार जी नहीं मरे थे। मैं मरा था।