लघु कथाएं

Monday, May 4, 2015

बँटवारा

सआदत हसन मंटो
एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक चुना। जब उसे उठाने लगा तो संदूक अपनी जगह से एक इंच न हिला। एक शख़्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज़ मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करनेवाले से कहा—“मैं तुम्हारी मदद करूँ?”

संदूक उठाने की कोशिश करनेवाला मदद लेने पर राज़ी हो गया। उस शख़्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज़ नहीं मिल रही थी, अपने मज़बूत हाथों से संदूक को जुंबिश दी और संदूक उठाकर अपनी पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया, और दोनों बाहर निकले।

संदूक बहुत बोझिल था। उसके वज़न के नीचे उठानेवाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी होती जा रही थीं; मगर इनाम की उम्मीद ने उस शारीरिक कष्ट के एहसास को आधा कर दिया था। संदूक उठानेवाले के मुक़ाबले में संदूक को चुननेवाला बहुत कमज़ोर था। सारे रास्ते एक हाथ से संदूक को सिर्फ़ सहारा देकर वह उस पर अपना हक़ बनाए रखता रहा।

जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुँच गए तो संदूक को एक तरफ़ रखकर सारी मेहनत करनेवाले ने कहा—“बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?”

संदूक पर पहली नज़र डालनेवाले ने जवाब दिया—“एक चौथाई।”

“यह तो बहुत कम है।”

“कम बिल्कुल नहीं, ज्यादा है…इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।”

“ठीक है, लेकिन यहाँ तक इस कमरतोड़ बोझ को उठाके लाया कौन है?”

“अच्छा, आधे-आधे पर राज़ी होते हो?”

“ठीक है…खोलो संदूक।”

संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में बाँट दिया।

No comments:

Post a Comment

टिप्पणियों से नवाजें